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उसी सत्संग की सार्थकता है जो कि जीवन को बदल दे

अच्छे लोगों की संगति को ही सत्संग कहा गया है। यह भी सत्य है कि सत्संग का प्रभाव अच्छा ही होता है, बुरा नहीं हो सकता, क्योंकि सत्संग में अच्छी बातें ही सुनने और देखने को मिलती हैं। कम से कम कुछ समय के लिए तो मन का मैल दूर हो ही जाता है। यह अलग बात है कि यदि हम सत्संग में सुनी अच्छी बातों को जीवन में नहीं लाते, तो जो सत्संग का प्रभाव होना चाहिए था वह नहीं होता। परन्तु कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं, जो सत्संग में सुनी बातों का मनन करते है और जीवन में लाने के लिये दृढ़ संकल्प हो जाते हैं, ऐसे व्यक्तियों के लिए सत्संग सार्थक बन जाता है।

कुछ समय पहले तक आर्य समाजों के सत्संग ऐसे ही हुआ करते थे। सत्संग में जाने वाले श्रद्धालुओं का जीवन बदल देते थे। आप में बहुतों ने दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले सीरियल बुनियाद में देखा होगा कि कैसे आर्य समाज का सत्संग उसके नायक हवेली राम का जीवन बदल देता है और एक व्यापारी का बेटा होने के बावजूद वह व्यापार से दूर हटकर समाजसेवी बन जाता है, जबकि उसके भाई का चरित्र जो कि आर्य समाज के सत्संग से दूर रहता है उसके विपरीत व अमानवीय गुणों से भरपूर रहता है। यह आर्य समाज के सत्संग का ही प्रभाव है कि अंग्रेजों के समय छोटी अदालतों में आर्य समाजी की शहादत को विना किसी संदेह के देखा जाता था। हम स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा हंसराज, लाला लाजपतराय से लेकर भजनोपदेशक अमीचन्द जैसे ऐसे बहुत से महान पुरुषों ं को जानते हैं जो कि आर्य समाज के प्रभाव में आकर देश व समाज को समर्पित हो गये।

ऐसी ही कहानी है फूलसिंह पटवारी की। उन्होंने आर्यसमाज के सत्संग में जाना शुरू किया तो आर्य समाज का रंग उन पर चढ़ने लगा। आर्य समाज सत्य को सब से ऊपर स्थान देता है इसलिए स्वाभाविक था कि अपने व्यवहार व चालचलन में ईमानदारी के महत्व को वे समझने लगे। शीघ्र ही उन्होंने महसूस किया कि वे जो लोगों से रिश्वत लेते हैं वह सत्य व नयायपूर्ण आचरण के विरूद्व है । उन्होने संकल्प लिया कि वह आगे से कभी रिश्वत नहीं लेंगे। आर्य समाज के सम्पर्क में आने के बाद जीवन ऐसा बदला कि दोनों समय हवन करते प्रभु का धन्यवाद करते व स्मरण करते। अपने सरकारी कामकाज से निवृत होने के बाद शास्त्रों का अध्ययन करते और दीन दुखियों की सेवा में लगे रहते।

एक बार आर्य समाज का जब वार्षिक उत्सव हो रहा था तो मंच पर बुलाकर उनका सम्मान किया गया। उनके सेवा कार्यों की प्रशंसा की गई। इसका प्रभाव यह हुआ कि अनके अन्तःकरण से आवाज आई कि भले ही आज उनका जीवन शुद्ध हो गया है किन्तु आर्य समाज के सम्पर्क में आने से पहले वह सभी से रिश्वत लेकर ही काम करते थे। जो उनके पास धन है उसमें बहुत सा धन इसी प्रकार बईमानी से अर्जित किया गया है। इस कलंक को दूर करना बहुत जरूरी है।

एक महीने का अवकाश लेकर वे अपने गांव पहुंचे और रिश्वत के पैसे से ली अपनी जमीनें बेच दीं। उस पैसे को लेकर वे उन-उन जगहों पर गये जहां वह पटवारी रहे थे और उन सभी के पैसे हाथ जोड़कर व क्षमा मांगकर लौटा देते। जिन लोगों का अता पता नहीं था वहां की पंचायत को वे पैसा दे देते।

आर्य समाज का रंग ऐसा चढ़ा कि बाद में उन्होंने अपनी पैतृक जमीन बेचकर गुरुकुलों की स्थापना की। आर्य सन्यासी स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने कहा था- उसी सत्संग की सार्थकता है जो फुूलसिंह की तरह जीवन को बदल दे।

नीला सूद

आर्यसमाज से प्रभावित विचारधारा। लिखने-पढ़ने का शौक है।