सामाजिक

लेना नहीं देना सीखें

“दिया है दाता ने तो दान दिया कीजिए नहीं खत्म होगा देने से रहमत का नूर बरसता रहेगा उपर वाले की झोली से, किसी गरीब की फटी झोली सिया कीजिए”
हम अक्सर देखते है अच्छे-अच्छे घर की गृहिणीयों को छोटे लोगों के साथ दो पाँच रुपये के लिए भाव मोल करते हुए। सब्ज़ी वाले, ठेले वाले, रद्दी वाले, ऑटो वाले के साथ। ज़रा सोचिए जब ईश्वर ने हमें इतना दिया है फिर भी हम दो-चार रुपये के लिए मरते है, तो उन लोगों के लिए उन चार रुपये कितने कीमती होंगे। उनको तो रोज़ कमा कर रोज़ खाना होता है। कोई पगार नहीं मिलती न बुढ़े ठेले वालों को पेंशन, दिन भर की कमाई से ही परिवार को पालना होता है। कभी व्यापार होता है, कभी नहीं होता किसीकी तो कभी बोनी भी नहीं होती, ऐसे में अगर दो रुपये हमारी जेब से उस जरूरतमंद की जेब में जाते है तो क्या गलत है।
उपर से कई औरतों की आदत होती है सारी सब्ज़ी खरीद लेने के बाद भी मुफ़्त में दो चार मिर्ची, एक नींबू, धनिया पत्ती या अदरक का टुकड़ा उठा लेती है। कोई कोई तो एकाद टमाटर या चुकंदर भी क्या ये सही है? जब सब्ज़ी का सिज़न होता है और सस्ती होती है तब तो ठेले वाले भी कुछ नहीं बोलते ले जाने देते है, पर जब दाम आसमान छू रहे हो फिर भी ऐसी हरकत शोभा नहीं देती। कई बार ठेले वाले हाथ में से सब्ज़ी खिंच लेते है यह कहते की ओ बहन जी कुछ तो शर्म कीजिए, तब कितना अपमान होता है। खुद के ही दिल से पूछिए क्या ये सही है। और किसी गरीब से मुफ़्त का लिया किसी न किसी बहाने हंमेशा तीन गुना होकर चला जाता है, और आप अपने परिवार को भी मुफ़्त का खिलाकर पाप के भागीदार बनाते हो।
वैसे तो पचास सौ रुपये हम यूँही उड़ा देते है पर कोई गरीब या भिखारी हाथ आगे करेगा तो हंमेशा जेब टटोलकर चिल्लर ही ढूँढते है दस का नोट जेब से झाँक रहा होता है उस पर गौर नहीं फ़रमाएंगे।
या तो हम बड़ी-बड़ी गाड़ियों में बैठकर जा रहे होते है पर सिग्नल पर हाथ फैलाए खड़े अपंग भिखारी को आगे निकल कहेंगे। क्यूँ इतनी छोटी चद्दर हो जाती है हमारी
रैस्टोरेंट में भी खाना खाकर दो तीन हज़ार का बिल खुशी-खुशी चुका देंगे पर वेइटर को टिप देने के लिए दस बीस रुपये खुले हो तो पचास का नोट छुपा लेंगे। जबकि पचास रुपये में हमारा बंगलो नहीं बनने वाला पर उस वेइटर के लिए पचास पाँच सौ से कम नहीं होते। क्यूँ हम इतने उदार नहीं बन सकते क्या लेकर आए थे और क्या साथ में लेकर जाएंगे। मंदिरों में देने से तो हम हरगिज़ नहीं कतराते, जबकि वहां जरूरत भी नहीं फिर भी ज़्यादा से ज़्यादा दान देने की कोशिश रहती है वह क्यूँ??? क्यूँकि वहाँ हम दान नहीं रिश्वत देते है, जिनके बदले में मन में कहीं न कहीं ये आस पलती है की ईश्वर इसका सौ गुना वापस करेंगे। पर यह गलत है ईश्वर रिश्वत से राज़ी नहीं होते किसी जरूरतमंद की मदद में खुश होते है।
अपने हिस्से का नया न दे सकें न सही, कम से कम पुराने कपड़े बर्तन के बदले मत दीजिए, ऐसे ही किसी गरीब को दे दीजिए एक साल निकल जाएगा आपके उस दो जोड़ पुराने कपड़ों में। पुराने कपड़े, पुराने चप्पल, बच्चों के खिलौनें और ऐसी बहुत सी चीज़ें हमारे घरों में  पड़ी रहती है जो सालों हम उपयोग में नहीं लेते। दिवाली पर सफ़ाई करके वापस स्टोर रूम में रख देते है या कबाड़ वाले को देकर दो सौ तीन सौ रुपये कमा कर खुश हो जाते है, इससे बेहतर है जिनको उन चीज़ों की जरूरत हो उन्हें दे दें शायद उनका काम बन जाए। तो ऐसी छोटी-छोटी बातों से हम किसी और के  जीवन में खुशियाँ बांट सकते है, मददगार बन सकते है तो यह काम कर लेना चाहिए। लेना नहीं देना सीखें इस सोच से समाज में समरूपता और भाईचारे की भावना पलेगी और किसीके काम आने पर मन को एक आत्मसंतोष भी मिलेगा।
— भावना ठाकर ‘भावु’

*भावना ठाकर

बेंगलोर