लघुकथा

झनकार

आज भावना फिर एक महिला की बुझती हुई ज्योति को जलाकर आई थी.
भावना के लिए ऐसा करना नई बात नहीं थी. ऐसा पर्व वह रोज ही मनाना चाहती थी और मनाती भी थी.
भावना में यह भावना कब और कैसे उत्पन्न हुई, वह नहीं जानती. उसको तो लगता था, उसकी यह भावना जन्मजात थी.
छोटी-सी ही थी, जब उसने अपनी मां को सब कुछ सहते देखा था.
“इतनी जल्दी चाय-पत्ती खत्म कैसे हो गई?” ससुर जी डांटते हुए पूछते. मां तो कुछ जवाब ही नहीं देती, “भाभी और मैं तो चाय पीते ही नहीं, एक कप-आधा कप चाय 15 बार बनेगी तो चाय-पत्ती तो ज्यादा लगेगी ही.” छोटा देवर कहता. नन्ही-सी भावना इतना जरूर समझती कि कुछ तो उलझन है!
“कल तो बिस्कुट का पैकेट आया था, आज खत्म कैसे हो गया?” पूछा जाता.
“पार्ले जी के पैकेट में से 13 बिस्कुट निकलते हैं, आप लोग बार-बार चाय के साथ खाते हैं, तो कितना चलेगा?” छोटे चाचा परिप्रश्न करते.
“मेरा नहाने का साबुन खत्म हो गया है, एक लेते आइएगा.” मां दादू से कहतीं. फिर वही बात! इतनी जल्दी खत्म कैसे हो गया?
भावना देखती कि कभी-कभार ममा मायके जातीं तो साबुन की चार बट्टियां लेकर आतीं.
“चार पुरुष, ममा और हम दो बच्चे. एक पाव भिंडी आती, खूब सारे आलू डालकर सब्जी बनती. सब भिंडियां चुन-चुनकर खाते, ममा को मैंने कभी भी भिंडी का एक टुकड़ा तक चखते नहीं देखा.” ऐसी ही न जाने कितनी बातें भावना के छोटे-से मन पर जमी हुई थीं. किसी तरह उसने मां को मां की तरह संभाला था.
सब स्त्रियों का यही हाल होता होगा, सोचकर वह पढ़ते-पढ़ते महिला स्क्वायड की सदस्या बन गई.
उसके बाद यही सब उसके लिए पर्व बन गया था.
“बेटी जैसे तूने मेरे जीवन की नैय्या पार लगाई है, वैसे ही भगवान तुझे भी अपार खुशियों की सौगात दे.” एक दुखियारी मां की खुशियों की झनकार थी.
इसी झनकार से भावना का जीवन झंकृत हो रहा था.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244