लघुकथा

बंधी हैं मुट्ठी, लाख की!

बंधी हैं मुट्ठी, लाख की!
चाहकर भी प्रिया बचत न कर पाती। चाहती,  इस बार तो कुछ जोड़ लूं, पर लक्ष्मीजी का वरदान होते हुए भी हर बार कुछ न कुछ बड़ा खर्चा आ जाता। कभी किसी बात की कमीं नहीं थी, पर बचत भी नहीं। छोटी बहन सौम्या के आवक कम, जावक ज्यादा थी। लेकिन सुगृहिणी सौम्या बखूबी अपने खर्चे का हिसाब किताब बिठा लेती। अपने हुनर और जिजीविषा से अपने परिवार का ध्यान रखते हुए कुछ अर्थार्जन भी कर लेती। सब कुछ होते हुए भी प्रिया दीदी का तनावग्रस्त रहना उसे अच्छा न लगता। कई बार समझाने की कोशिश भी की।
“दीदी, आप पढ़ीलिखी हो। कुछ करती क्यों नहीं? किटी पार्टी, दिनभर गप्पे मारना, इधर उधर घूमना.. बचत होगी भी कैसे? चाह होगी तो राह मिलेगी ही। इच्छा हो कि अपना घर स्वर्ग से सुंदर बनाये। घर आंगन गुलजार रहें। दीदी, थोड़ा घर भी संभालना होगा। गुड़िया अब बड़ी हो रही हैं। मांजी बीमार रहती हैं। जीजाजी टूर पर रहते हैं। आप भी घर में न रहोगी… गृह सहायिका के भरोसे घर…”
“ठीक हैं, ज्यादा भाषण न दो। पता हैं, तुम समझदार हो।” दीदी गुस्से से कहती।
“दीदी, हमारी कमाई कम हैं, पर हम सब मिलकर रहते हैं। अपने हिसाब से। छोटी बेटी रिया अपना सब काम खुद करती हैं। पति सुमेश भी काम में हाथ बंटाते हैं। बेटा राजन अपनी ज़िम्मेदारी ख़ूब जानता हैं। समस्या का निदान भी हम सब मिलजुलकर, विचार विमर्श कर ढूंढते हैं। बंधी मुट्ठी हैं हमारी। जब तक बंधी रहेगी, रहेगी लाख की, अनमोल।”

*चंचल जैन

मुलुंड,मुंबई ४०००७८