मजदूर का पसीना है
हर जगह नींव में मजदूर का पसीना है
फिर भी मझधार में उसका सफ़ीना है
सालो साल मेहनत से बनाता है घर
होता है उसमें फिर औरों का बसर
उसके लीये तो बस झोपड़ी का सीना हे
फिर भी मझधार में उसका सफ़ीना है
खेतों में हल चलाता मजदूरी करता है
धूप में बरसात में दिन भर खटता है
अक्सर तो पड़ता फाकों पे जीना है
फिर भी मझधार में उसका सफ़ीना है
बढ़िया से बढ़िया वो कपड़े बनाता है
बड़े बड़े रईसों की शान वो बढ़ाता है
खुद के फटे कपड़ों को हर दिन सीना है
फिर भी मझधार में उसका सफ़ीना है
सबकी जरुरत है रोटी कपड़ा मकान
सबकी ख्वाहिशें पूरी करता जो इंसान
जीता वो इनके बिना बारहो महीना है
फिर भी मझधार में उसका सफ़ीना है
देखो वही रब का मंदिर भी बनाता है
छेनी से ईश्वर की मूरत को गढ़ता है
जाने क्यूं वो भी उसी को दुःख दीना है
फिर भी मझधार में उसका सफ़ीना है
पुष्पा अवस्थी “स्वाती”