लघुकथा

शऊर

रमा एक साल तक बहू-बेटे के पास विदेश में रहकर आई थी. जाने से पहले ही उसे न जाने क्यों ऐसा लग रहा था, कि न ही जाए तो अच्छा!
हुआ भी ऐसा ही! बड़ा घर, खाने-पीने की कोई असुविधा नहीं, बस दिल में इज्जत-प्यार का टोटा था. वैसे तो सबको ही इज्जत-प्यार की ही दरकार रहती है पर बुजुर्गों को सबसे ज्यादा, क्योंकि सारी उम्र सहन करते-करते उनकी सहनशीलता चुक गई होती है.
हुआ भी ऐसा ही, वहां जाते ही रमा को अस्पतालों के चक्कर लगाने पड़े और बहुत समय तो उसका अस्पताल में रहते-रहते ही निकल गया था.
वापिस आते समय भी रमा घबरा रही थी. कोरोना काल अभी चल ही रहा था. उसकी शारीरिक-मानसिक शक्ति भी धोखा दे रही थी. कौन उसकी सहायता करेगा वहां? पति-पत्नी दोनों ही काम करने को लाचार. घरेलू सहायिकाओं की किल्लत और बदमग्जी किसी से छिपी नहीं है.
कहते हैं न “जहां प्यार पाने की आशा हो, वहां प्यार मिलता नहीं है और जहां प्यार मिलने की उम्मीद ही न हो, वहां भरपूर प्यार और सम्मान मिलता है.”
विदेश जाते समय जिस सहायिका को रमा भरपूर धन राशि और सामान दे गई थी, उसके पास उनके लिए समय ही नहीं था. मजबूरी में जो काम मांगने उनके पास आई, उसी इंदु को काम पर लगा लिया.
काम शुरु करते ही इंदु ने अपनेपन के रिश्ते बुनने शुरु कर दिए. एक बार काम बताने पर वह जो भी काम करती दिल लगाकर करती. बर्तन भी चमका दिए और घर भी. उसका दिल भी चमकदार जो था!
रमा मटर छीलती तो इंदु पास आकर बैठती और बतियाते-बतियाते चुटकी बजाते काम हो जाता. रमा जरा-सा थकी हुए दिखती, तो इंदु झट से कहती- “दीदी, आप लेट जाइए, सब्जी मैं काट दूंगी और वह अपने आप बर्तन उठाकर सब्जी काटती और छौंककर भी जाती. रमा के मन से दुआएं निकलतीं, जो इंदु को और भी तरोताजा कर देतीं.
“काश! अपनेपन का ऐसा ताना-बाना बुनने का जरा-सा भी शऊर बहू को होता, तो मेरी ऐसी शारीरिक-मानसिक हालत कभी न होती!” रमा के मन से सोच की लहर उठती थी.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244