तिरुपति वेंकटेश्वर मन्दिर भारत के सबसे प्रसिद्ध तीर्थस्थलों में से एक है। यह आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में स्थित है। प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में दर्शनार्थी यहां आते हैं। समुद्र तल से 3200 फीट ऊंचाई पर स्थित तिरुमला की पहाड़ियों पर बना श्री वेंकटेश्
वर मंदिर यहां का सबसे बड़ा आकर्षण है। कई शताब्दी पूर्व बना यह मंदिर दक्षिण भारतीय वास्तुकला और शिल्प कला का अद्भुत उदाहरण हैं। यह ऐसा मन्दिर है जिसमें संसार में सबसे अधिक दान प्राप्त होता है। तमिल भाषा में तिरु का अर्थ है- श्री अर्थात् लक्ष्मी। इस प्रकार तिरुपति का अर्थ हुआ- लक्ष्मी के पति अर्थात् विष्णु भगवान। वेंकटेश्वर भगवान विष्णु का ही एक नाम है।
हम कुछ महीने बैंगलुरु में रहने आये, तो स्वाभाविक रूप से हमारी इच्छा भी तिरुपति का दर्शन-भ्रमण करने की हुई। कर्नाटक सरकार ने बैंगलुरु से तिरुपति का भ्रमण करने की अच्छी बस व्यवस्था कर रखी है। वे रात को 9-10 बजे ले जाते हैं और अगले दिन लगभग उसी समय छोड़ देते हैं। इस बस के किराये में लोकल बसों का किराया, दर्शन की टिकट, होटल में कुछ समय तक विश्राम, जलपान तथा दोपहर के भोजन की भी व्यवस्था है। इससे यात्री सुविधापूर्वक दर्शन-भ्रमण कर आते हैं। इसी सुविधा का लाभ उठाते हुए हमने भी दि. 4 मई 2022 की रात्रि को एक सरकारी बस में अपने लिए सीटें आरक्षित कर लीं। 5 मई को गुरुवार था। इस दिन दर्शन अधिक सरलता से हो जाते हैं, क्योंकि स्थानीय लोग इस दिन नहीं आते, केवल बाहरी यात्री ही आते हैं। वैसे सामान्यतया लगभग 1 लाख दर्शनार्थी वहाँ प्रतिदिन आते हैं।
हम कुल चार लोग थे- मैं, मेरी पत्नी श्रीमती बीनू, पुत्र चि. दीपांक और पुत्रवधू सौ. श्वेता। हम अपने निवास के निकट स्वामी विवेकानन्द मेट्रो स्टेशन के नीचे से उस बस में बैठे, जो ठीक 9.25 पर वहाँ आ गयी थी। वहाँ से केवल हम ही बस में चढ़े थे। शेष सभी सीटें पहले से भरी हुई थीं। बसों की सीटें पीछे की तरफ झुकने वाली होती हैं, जिन पर हम दो चार घंटे की यात्रा सुविधापूर्वक सोते हुए भी कर सकते हैं।
हम ठीक 2 बजकर 20 मिनट पर तिरुमला कस्बे के निकट एक होटल विंटेज इन्न में पहुँच गये, जहाँ हमारे लघु विश्राम और भोजन की व्यवस्था की गयी थी। रास्ते में हम कठिनाई से दो घंटे ही सो पाये होंगे, क्योंकि किसी को गहरी नींद नहीं आ रही थी। होटल हमें दो पलंगों वाला बड़ा सुईट मिला, क्योंकि हम चार लोग थे। उस सुईट में दो बाथरूम थे। हमसे कहा गया था कि 4 बजे तक नहा-धोकर तैयार हो जाना है। फिर नीचे जलपान मिलेगा। तब आगे चलेंगे।
हमने थोड़ी देर तो विश्राम किया, फिर नित्य कर्मों से निवृत्त होकर नहाकर तैयार हो गये। तिरुपति में पैंट, बरमूडा आदि पाश्चात्य परिधान पहने दर्शनार्थियों को आने की अनुमति नहीं है, इसलिए हमने कुर्ता-पाजामा धारण कर लिये, जो हमने आगरा से कोरियर से मँगवा लिये थे। मैंने मोदी कुर्ता के साथ पाजामा पहना, जो मैंने कई साल पहले लखनऊ में गाँधी आश्रम से खरीदा था।
ठीक 4 बजे हम नीचे भोजन कक्ष में आये। वहाँ इडली, वडा, उत्तपम, और उपमा का जलपान तैयार था। इसके बाद चाय भी थी। हमने सब थोड़ा थोड़ा खाया। सब अच्छा बना था। जलपान के बाद लगभग 5 बजे हम वहाँ से चले और एक बस अड्डे तक आये, जहाँ से तिरुपति की चढाई के लिए बसें मिलती हैं। हमने अपना सामान अपनी बस में ही छोड़ दिया, क्योंकि उसकी आवश्यकता नहीं थी। केवल मोबाइल हमने अपने साथ रखा।
लगभग पौने 6 बजे हमें एक बस में बैठाया गया। बस अच्छी थी और सड़क भी बहुत अच्छी बनी हुई है। इसलिए आराम से चलते हुए हम लगभग 7 बजे तिरुपति मंदिर के निकट राम बगीचा बस अड्डे पर उतर गये। वहाँ काफी दुकानें बनी हुई हैं। उनमें से ही एक दुकान में हमने अपने चप्पल जूते रखे और मोबाइल भी रख दिये। मोबाइल रखने का मामूली शुल्क लगता है। वहाँ हमें विश्राम आदि के लिए एक घंटे का समय दिया गया और कहा गया कि फिर हम दर्शनों के लिए चलेंगे।
बहुत से लोग इस समय का उपयोग अपना और बच्चों का मुंडन कराने के लिए करते हैं। वहाँ केशदान करने की परम्परा है। हमारे साथ के अनेक लोगों ने वहाँ अपना मुंडन कराया। हमें कुछ कराना नहीं था, इसलिए एक पेड़ के नीचे बैठे हुए समय काट रहे थे। उस समय वहाँ मामूली गर्मी थी। निकट ही वाशरूम की सुविधा भी थी, इसलिए कोई कष्ट नहीं हुआ।
हमारे लिए टिकट पर दर्शनों का समय 9 बजे तय था। इसलिए लगभग सवा आठ बजे हमारा गाइड हमें अपने साथ दर्शन के लिए लेकर चला। हमसे कहा गया कि अपनी-अपनी टिकट और आधार कार्ड अपने साथ रखें। मुख्य मंदिर यों तो सामने ही है, लेकिन दर्शन के लिए काफी घुमाकर पीछे से लाया जाता है। बहुत लम्बी लाइन लगती है। अधिकांश लाइन छायादार गलियारे में और कई बार खुले में भी। ऐसा भीड़ को नियंत्रित करने के लिए किया जाता है। उस दिन केवल दर्शनों की टिकट वाले यात्री ही थे, फिर भी बहुत भीड़ थी।
अब हमें दर्शनों के लिए प्रतीक्षा करनी थी। लम्बे गलियारों में चलते हुए और कई बार रुकते हुए हम मुख्य मंदिर के निकट पहुँच रहे थे। रास्ते में पीने के पानी और शौचालय तक की अच्छी व्यवस्था थी, जिससे किसी को कोई कष्ट न हो। गलियारे पूरी तरह छायादार हैं, इसलिए वहाँ गर्मी नाममात्र की ही थी, हालांकि अनेक जगह पंखे भी चल रहे थे। बीच में दो अन्य छोटे मंदिर हैं, जिनमें दर्शनार्थी जाते हैं। हम भी गये।
लगभग 10 बजे हमें एक हॉल में बैठने को कहा गया। तब तक मेरा अनुमान है कि हम लगभग तीन किलोमीटर पैदल चल चुके होंगे। हमारे हॉल का नम्बर 29 था। ऐसे लगभग 50 हॉल वहाँ हुए हैं। प्रत्येक हॉल में लगभग एक हजार लोग सीढ़ियों पर और गलियारे में बैठ सकते हैं। हॉल बहुत ठंडे थे, पंखे भी चल रहे थे, इसलिए किसी को कोई कष्ट नहीं था। लोग धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करते हैं। कोई अव्यवस्था भी नहीं थी।
लगभग साढे दस बजे एक बड़े दोने में हमें खिचड़ी का प्रसाद दिया गया। खिचड़ी बहुत स्वादिष्ट थी। हम चारों ने एक-एक दोना खिचड़ी खायी, जिससे सबका पेट भर गया। इसके बाद फिर प्रतीक्षा करने लगे।
बहुत देर तक प्रतीक्षा करने के बाद हमारे हॉल के लोगों का नम्बर दर्शनों के लिए आया। तब हम फिर गलियारों में होकर दर्शनों के लिए गये। उस समय भी लगभग आधा किलोमीटर चलना पड़ा। धीरे-धीरे चलते हुए लगभग साढे 11 बजे हम मुख्य मंदिर तक पहुँचे और भगवान वेंकटेश्वर की मूर्ति के दर्शन किये। वहाँ से निकलते हुए हमें फिर एक छोटे दोने में खिचड़ी का प्रसाद दिया गया। वहाँ बड़ी बड़ी हुंडियाँ रखी हुई हैं, जिनमें लोग अपनी भेंट चढ़ा सकते हैं। हमने भी उन हुंडियों में भेंट चढ़ायी।
अब हमें लड्डुओं का प्रसाद लेना था। वहाँ रु. 300 की टिकट वाले दर्शनार्थियों को एक-एक लड्डू का प्रसाद दिया जाता है। इसके अलावा कोई भी रु. 50 प्रति के मूल्य पर कितने भी लड्डू खरीद सकता है। लड्डू वितरण के लिए वहाँ लगभग 20 काउंटर हैं। उनके लिए थैले भी 5 रु प्रति के मूल्य पर मिल रहे थे। लड्डू मेवाओं से भरपूर तथा बहुत स्वादिष्ट होते हैं।
उसके बाद हम बाहर आये और अपने बस के साथियों की प्रतीक्षा करने लगे। एक जगह हमने फोटो भी खिंचवाये, यद्यपि फोटो खींचने की अनुमति नहीं है और हमारे पास मोबाइल भी नहीं थे। फोटो छपकर मिलने में लगभग आधा घंटा लग गया। तब हम रामबगीचा बस अड्डे पर आये। दोपहर में सड़क बहुत गर्म हो जाती है और उस पर नंगे पैर चलना बहुत कठिन होता है। किसी तरह हम बस अड्डे पहुँचे और अपने जूते-चप्पल तथा मोबाइल प्राप्त किये।
हमारे अन्य साथी लगभग डेढ़ बजे आये। तब हम एक बस में बैठकर नीचे आये और फिर अपनी बस में बैठकर उसी होटल तक आये, जहाँ हमारे भोजन की व्यवस्था की गयी थी।
उस समय पौने तीन बजे थे। तब तक सभी को भूख लग आयी थी। हमें एक थाली में भोजन दिया गया, जिसमें कई सब्जियाँ, दाल, रोटी, चावल, दही और पापड़ भी था। खाना स्वादिष्ट था। सबने छककर भोजन किया और फिर चलने के लिए तैयार हो गये।
ठीक साढ़े तीन बजे हम चल दिये। रास्ते में एक जगह किसी ढाबे पर 10 मिनट के लिए रुके और फिर लगातार चलकर ठीक साढे आठ बजे हम स्वामी विवेकानन्द मेट्रो स्टेशन के नीचे उतर गये और वहाँ से निकट ही अपने निवास पर पहुँच गये। इस प्रकार हमारी यह तिरुपति यात्रा सम्पन्न हुई।