गीतिका
द्रव इन आंखों से निकलता जा रहा है
ये सूरज फिर यूं ही ढलता जा रहा है
कोई है,जो लाल आंखों का सबब पूछे
कुछ जहर सा सीने में जमता जा रहा है
सब कुछ बांधने की कोशिश करता था
एक एक कर सब बिखरता जा रहा है
गमों को छुपा कर मुस्कुराने का हुनर भी
कोई दीया जैसे कब्र पर जलता जा रह है
— रेखा घनश्याम गौड़