अचूक दवा
बरसों बाद अपने बच्चों की जिम्मेदारियों से फुर्सत पाकर सोनल कुछ दिनों के लिये ससुराल आई थी । बस यही सोच कर कि माँ बन कर या पत्नी बन कर अनेकानेक जिम्मेदारियों का निर्वहन की । कुछ दिन बिटियाबहू बन कर संतान का फर्ज भी निभा लूँ ।
माँ जी सदैव उसे ‘बिटियाबहू’ ही कहतीं थीं । माँ जी उसके पास कभी नहीं जा सकीं । जब भी बुलाने की कोशिश करती वह हमेशा कहतीं- “बिटिया बहू ; मेरी कर्मस्थली से मुझे दूर मत ले जाओ, वरना मैं निकम्मी होकर कुछ ही दिनों में बीमार हो जाऊँगी ।”
सोनल को माँ जी की कही बातें सच लगने लगी थी । सच में बच्चों के जाने के बाद उसे भी अपना ही घर काटने को दौड़ता था । पति भी सेवानिवृत्त हो गए थे । माँ जी बीमार हैं सुनते ही वह भागी चली आई थी ।
घर आते ही सबसे पहले माँ जी की इच्छा और कौन सब दवाईयाँ ले रही हैं पूछने लगी । माँ ने कहा- “बिटियाबहू ; हो सके दुआ कर शायद ईश्वर के घर का दरवाजा मेरे लिये खुल जाये ।”
“माँ जी आप चिंता मत करें आज से मैं आपको रोज दवा भी दूँगी और दुआ भी करूँगी ।”
बुढ़ी माँ आश्चर्य से पूछ बैठी – “वो कैसे भला ?”
“माँ जी ; आपका प्रिय धर्मग्रंथ क्या है ?”
“अरे वाह ! तो क्या तुम मुझे सुख सागर पढ़ कर सुना सकती हो ? अगर हाँ तो फिर तो मुझे किसी दवा या दुआ की जरूरत नहीं है । तुम्हें नहीं पता क्या ‘थोड़ी फिकर थोड़ी कदर तभी दवा भी करे असर’ समझी बिटियाबहू । मैं वर्षों से इस पल का इंतजार कर रही थी । बुढ़ी और बेबस सांसों को हर कोई नहीं संभाल सकता है ।”
” माँ जी यह आपने बिल्कुल सही कहा ।” ऐसा कहते हुए दीप प्रज्वलित कर सोनल सुख सागर का पाठ करने लगी ।
माँ जी पाठ सुनते-सुनते चिरनिद्रा में लीन हो गईं । शायद उन्हें वर्षों इंतजार करना पड़ा होगा, इस अचूक दवा का ।
— आरती रॉय