तरक्की की राह
दीपावली के दिन सुबह से भाग-दौड़ करके मानुषी बुरी तरह थक गई थी । सारे घर आँगन में दीप जलाकर बालकनी में जाकर बैठ गई । अगले ही पल ख्याल आया कि किशोर को देखे बहुत देर हो गया है । वह बिना वक्त गंवाये किशोर के कमरे में झांकने चली गई ।
ऊफ्फ हे भगवान ! मैं माँ होकर इतनी लापरवाह कैसे हो गई ?
किशोर जरूर पुकारा होगा, पर शायद मैं ही सुन नहीं पाई । ओं…ओं…ओं…करते करते किशोर बेसुध होकर जमीन पर गिरा पड़ा था ।
जैसे-तैसे किशोर को उठाकर बिस्तर पर लिटा दी । उसके कपड़े बदल कर पुन: बालकनी में आकर बैठ गई ।
घर के अंदर और घर से बाहर चहूंओर दीपक जल रहा था पर उसके मन में अमावस सा अंधियारा गहरी पैठ बना चुका था । अतिमहत्वाकांक्षा ने उसकी यह हालत पैदा कर दी । नौकरी तरक्की और प्रमोशन की चाह में दो बार गर्भपात करवा चुकी थी ।
एक बार परिस्थिति वश थोड़ा बिलंब हो गया । सोची समय पर गोलियां खा रही हूंँ, चिंता की कोई बात नहीं, क्योंकि उस बार मासिकश्राव बंद नहीं हो रहा था ।
डॉक्टर को दिखलाई तब तक चार महीने बीत चुके थे । ऐसी हालत में खतरा मोल लेना सही नहीं लगा और किशोर का जन्म हुआ ।
प्रसव पीड़ा के बाद बच्चे का जन्म खुशी के बदले कभी नहीं खत्म होने वाला कष्ट लेकर आया था ।
नवजात बच्चा पैदाइशी विकलांग था । अपने ही शरीर का अंश अब उसे पल-पल बोझ लगने लगा था ।
अतिमहत्वाकांक्षाओं की सीढ़ी चढ़ने में पता ही नहीं चला कि कब वह स्वयं के कोख पर पैर रख कर आगे बढ़ती जा रही थी ।
“अरे मानुषी तुम यहां हो ? चलो खाना खाते हैं । किशोर को भी मैं कमरे से लेकर आता हूँ ।”
“रूकिये मैं लाती हूँ उसे, सॉरी मानव ।”
“सॉरी शब्द बेमानी हैं, मानुषी हम दोनों के जीवन में, काश दोनों माँओं के अनुभव को अनसुनी नहीं करता तो हमें आज यूँ रोना नहीं पड़ता ।”
मैं भी तो घर बँगला गाड़ी और तरक्की की चाह में तेरी हाँ में हाँ मिलाता रहा ।”
— आरती रॉय