ग़ज़ल
आ गया है दौर कैसा बिक रहा ईमान है ।
गुम हुई इंसानियत हर आदमी हलकान है ।
बेखुदी में जी रहे हैं होश खोकर बेखबर ।
ज़िंदगी से दूर हैं और मौत से अंजान हैं।
मज़हबों के नाम पर इंसान खुद बटता गया ।
गर्क होता जा रहा है खो रहा पहचान है।
उलझनों की बस्तियां हैं दर्दो ग़म बिकते यहां।
क्या से क्या इंसां हुआ रब देख के हैरान है ।
चाहतों की बात करता हादसों का रूप बन।
आदमीयत भूल बैठा बन गया हैवान है ।
वक्त के मानिंद चलना सीख ऐ इंसान अब।
खूबसूरत जीस्त हो जीना तभी आसान है ।
इस तरह कब तक बचेगा खूबसूरत यह जहाँ।
ऐ ‘मृदुल’ दुश्वारियों का हर तरफ सामान है ।
मंजूषा श्रीवास्तव”मृदुल”