गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

आ गया है दौर कैसा बिक रहा ईमान है ।
गुम हुई इंसानियत हर आदमी हलकान है ।

बेखुदी में जी रहे हैं होश खोकर बेखबर ।
ज़िंदगी से दूर हैं और मौत से अंजान हैं।

मज़हबों के नाम पर इंसान खुद बटता गया ।
गर्क होता जा रहा है खो रहा पहचान है।

उलझनों की बस्तियां हैं दर्दो ग़म बिकते यहां।
क्या से क्या इंसां हुआ रब देख के हैरान है ।

चाहतों की बात करता हादसों का रूप बन।
आदमीयत भूल बैठा बन गया हैवान है ।

वक्त के मानिंद चलना सीख ऐ इंसान अब।
खूबसूरत जीस्त हो जीना तभी आसान है ।

इस तरह कब तक बचेगा खूबसूरत यह जहाँ।
ऐ ‘मृदुल’ दुश्वारियों का हर तरफ सामान है ।
मंजूषा श्रीवास्तव”मृदुल”

*मंजूषा श्रीवास्तव

शिक्षा : एम. ए (हिन्दी) बी .एड पति : श्री लवलेश कुमार श्रीवास्तव साहित्यिक उपलब्धि : उड़ान (साझा संग्रह), संदल सुगंध (साझा काव्य संग्रह ), गज़ल गंगा (साझा संग्रह ) रेवान्त (त्रैमासिक पत्रिका) नवभारत टाइम्स , स्वतंत्र भारत , नवजीवन इत्यादि समाचार पत्रों में रचनाओं प्रकाशित पता : 12/75 इंदिरा नगर , लखनऊ (यू. पी ) पिन कोड - 226016