उलाहना
जब भी दुःख हावी हुआ,
संवेदना तुमने दिखाई।
कृतज्ञता कर व्यक्त अपनी,
रस्म हमने भी निभाई।
संवेदना का यह प्रदर्शन,
महज़ था मन का छलावा।
सत्य से अनभिज्ञ रहकर,
हो न सकेगा अब गुजारा।
जीवन सफ़र की डगर पर,
हर पथिक चलता अकेला।
दुःख से मेरे तुम दुखी हो,
रोक दो यह खोखला दिखावा।
क्यों नहीं तुम मान लेते?
छल नहीं प्रेम उपजाता।
नयन अश्रु यह कह रहे हैं,
तुमसे नहीं अब मेरा नाता।
— कल्पना सिंह