विचार
अँधेरा गहराता जा रहा था और पाँवों के नीचे जो सीलन और कीचड़ था वह दरअस्ल खून-माँस था और चीखें और चीत्कारें जो थीं हमारे अपनों की थी लेकिन कोलाहल में तय नहीं होता था कि कौन मर रहा और कौन मार रहा है जबकि सबको अपनी-अपनी पड़ी थी और ऐसे हिंसक अँधेरे के बीच भी कुछ लोग ईनाम ओ मान की लिप्सा में फूलों और चाँद-सितारों की बातें कर रहे थे जबकि गुलाब की टहनी पर बेशुमार काँटे थे और चाँद-सितारे अपनी चमक खोते जा रहे थे लेकिन कमल नाल से बंधे कवि गण विरुदावली गा रहे थे राष्ट्रवाद की जो कि उस घुप्प अँधेरे में हथिया लिया गया था हत्यारों द्वारा और यदि कोई टटोल कर ढूँढना चाहता था रास्ता तो हाथ कलम कर दिये जाते थे और मैं हैरत में था कि इतने घने अँधेरे के बावज़ूद हत्यारों का निशाना बिल्कुल सही लगता था और ज़्यादातर लोग अपने बेवज़ह क़त्ल पर भी जय जयकार बोल रहे थे शासकों की जैसे कि बलिदान हो रहे थे वे न्याय के नाम पर जबकि वह सब कुछ घोर अन्याय था घृणास्पद…
“दर्द से फट रहा है सिर मेरा
वक़्त है बहुत बेरहम यारों”
–कैलाश मनहर