गरीब की दो रोटियां का बोझ
इतना भारी क्यों हो जाता है
जिसे दौलत का बाजार
उठा नहीं पाता ।
बाजार के दरवाजे
बंद होते ही
भूख गलियों में अतीत की तरह
आज भी क्यों घूमने लगती है ।
राजनीतिक आकांक्षाओं के सामने
भीषण त्रासदी की चिंता
क्यों गौण हो जाती है ।
आजादी के अर्थ
गरीब की दहलीज तक पहुंचते-पहुंचते
क्यों बदल जाते हैं
और जुमलेबाजियों की धूप में
संवेदनाओं के फूल क्यों कुम्लाह जाते हैं ।औ
जिंदगी और मौत के
आंकड़ों का फर्क
गरीब की झोपड़ी में आते ही
क्यों मर जाता है
तुम भी सोचना….।।