छुटकी बड़ी हो गई
आज वो बहुत खुश थी, हो भी क्यों न? पिछले उन्नीस सालों में एक पल के लिए भी उसने उम्मीद नहीं छोड़ी थी।
आखिर आज उसकी उम्मीद पूरी होने वाली थी, उसका बिछुड़ा भाई जो आने वाला था।
तभी दरवाजे पर दस्तक सुनाई दी। दौड़कर उसने दरवाजा खोला, दरवाजे पर एक हट्टाकट्टा गबरु जवान दो सिपाहियों के साथ खड़ा था।
वह अपलक उसे निहारती रही।
क्या देख रही है छुटकी? अपने दद्दू को पहचान नहीं पा रही है? युवक डबडबाई आंखों से बोल उठा
सचमुच तू मेरा दद्दू है, कैसे मान लूं? क्या पता जवान लड़की देखकर मन में कुछ और चल रहा हो। उसने अकड़ से जवाब दिया
फिर कैसे मानेगी?
बचपन में तू मुझे दद्दू कहती थी न, और मैं तुझे छुटकी बुलाता था।
हाँ। कह तो तुम सही रहे हो। मगर कुछ और बताओ जो कम ही लोगों को पता हो? वह बोली
जब तू रोती थी, तब बिना मेरे कंधे पर बैठे कभी चुप ही नहीं होती थी।माँ तेरी इस जिद से परेशान होकर तुझे अक्सर डाँट भी लगाती थी। अब तो मानेगी न।
उसकी आंखों में आँसू बहने लगे। मगर वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या करें? फिर एक झटके से बोल उठी- मुझे अपने कँधे पर बिठायेगा?
मगर……….।
अगर मगर छोड़ और वापस चला जा। मेरा दद्दू इतनी देर तक अपनी छुटकी को रोता नहीं देख सकता था। उसके स्वर में अपने दद्दू के लिए गर्व था।
हाँ कह तो तू सही रही है, मगर अब छुटकी छुटकी नहीं रही, बड़ी हो गई है। युवक के स्वर में विवशता के लक्षण साफ नजर आ रहे थे।
तो तू ही कौन सा बच्चा है, जो पिस जाएगा। उसके स्वर में अल्हड़पन था।
युवक ने हार मानकर कहा- चल आ जा, मुझे पता है, तू ऐसे मानने वाली नहीं है।
वो बिना कुछ कहे युवक से लिपटकर रो पड़ी – अब मुझे विश्वास हो गया कि तू ही मेरा दद्दू है।
युवक की आंखों से अश्रु धारा बह निकली,जो युवती के बालों को भिगो रही थी।उसका हाथ उसके सिर पर था, जैसे वो अपनी छुटकी को आश्वस्त कर रहा हो।
दोनों पुलिस वाले नमः आँखो से बिछुड़े भाई बहन को ऐसे देख रहे थे, जैसे इस मिलन को अपनी आंखों में हमेशा के लिए कैद कर लेना चाहते हों।