कविता

बाँसुरी बजती रही

 

चैन से बजती रही उसकी बाँसुरी

न कोई फ़िक्र न चिंता

दीन दुनिया से बेखबर

हर दर्द को बाँसुरी के सुरों में डाल

जैसे निश्चिंत हो जाना चाहता है वो।

शायद इसीलिए भी

कि और कोई तो नहीं है ऐसा

जो उसकी पीड़ा पर मरहम लगाये

उसके दर्द बाँट ले, उसके मन का बोझ

थोड़ा भी कम कर दे।

ऐसे में बाँसुरी ही उसकी साथी, उसकी हमदर्द है,

कम से कम उसके दर्द को समझती, सहती है

उफ़ तक नहीं करती।

शायद उसे पता है दर्द क्या होता है

बांट ले हमदर्दी से कोई तो

बहुत कम हो जाता है।

या उसे पता है कि वो बेजान है

खुशियां हों या दर्द क्या फर्क पड़ता

फर्क उसे पड़ता है जो उसे बजाता है

उसके सुरों से उसके मन का भाव समझ में आता है।

बाँसुरी बजती रही उसके परोसे सुरों से

उसका ग़म कम करती रही

अंदर से कराहती रही

उसके जख्म सहलाती रही

फिर भी बजती रही उसकी खुशी के लिए

उसका दर्द हल्का करती रही

अपना कर्म करती रही,बांसुरी बजती रही।

 

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921