बिटिया का पिता
भरे कण्ठ से बेटी का पिता,
कुछ भी नहीं कह पाता है|
मन ही मन ईश्वर मनाता है,
बेटी की सलामती के लिए|
बेटी जब विदा लेती है तो,
बाबुल मूकदर्शक की भांति,
सब कुछ देखता रहता है|
सम्हालता है चीत्कार मारती<
पत्नी को जो बेटी से लिपटी
रो-रोकर माथे को चूमती है|
भाई-बहन से लिपट-लिपट,
कर अपने गले लगाता है,
और आशीषता है जी भर|
पिता नम आँखों से सब
देखकरअनजान बना रहता है|
बारातियों का सम्मान पूर्वक,
विदाई, दामाद को आशीष,
समस्त परिजनों की उचित,
देखभाल में व्यस्त पिता
अन्दर ही अन्दर टूटता है,
लाडली बिटिया के लिए |
जब अकेला होता है तो
आंसू थमने का नाम नहीं लेते,
बह निकलते हैं बांध तोड़कर,
लगातार, लगातार लगातार|
— अनुपम चतुर्वेदी