कविता

बिटिया का पिता

भरे कण्ठ से बेटी का पिता,
कुछ भी नहीं कह पाता है|
मन ही मन ईश्वर मनाता है,
बेटी की सलामती के लिए|
बेटी  जब  विदा लेती है तो,
बाबुल मूकदर्शक की भांति,
सब  कुछ  देखता रहता है|
सम्हालता है चीत्कार मारती<
पत्नी को जो बेटी से लिपटी
रो-रोकर माथे को चूमती है|
भाई-बहन से लिपट-लिपट,
कर  अपने  गले  लगाता है,
और आशीषता  है जी भर|
पिता  नम  आँखों  से  सब
देखकरअनजान बना रहता है|
बारातियों का सम्मान पूर्वक,
विदाई, दामाद को आशीष,
समस्त परिजनों की उचित,
देखभाल  में  व्यस्त   पिता
अन्दर  ही  अन्दर टूटता  है,
लाडली  बिटिया  के  लिए |
जब  अकेला  होता  है  तो
आंसू थमने का नाम नहीं लेते,
बह निकलते हैं बांध तोड़कर,
लगातार, लगातार लगातार|

— अनुपम चतुर्वेदी

अनुपम चतुर्वेदी

वरिष्ठ गीतकार कवयित्री व शिक्षिका,स्वतंत्र लेखिका व स्तम्भकार, गजलगो व मुक्तकार,संतकबीर नगर,उ०प्र०