शहीदी दिवस 25 जून : बाबा बंदा सिंह बहादुर
बाबा बंदा सिंह बहादुर सिख इतिहास में तथा भारतीय इतिहास में गगन में ध्रुव तारे की भांति चमकता रहेगा, जो कौम को कुर्बानी तथा बहादुरी के आशीर्वाद की राहों में बाबा बंदा सिंह बहादुर की याद पीढ़ियों के लिए एक संदेश देती रहेगी।
बाबा बंदा सिंह बहादुर सच्चाई का तुफान, क्रांतिकारियों तथा बेसहारों के लिए अंधेरे में चमकते सूर्य का प्रतीक था। वह दुश्मनों के सीन पर लटकती तलवार था। शत्राुओं के लिए भय का सूचक, निधर््नों का हमदर्द, पर्वत जैसी शक्ति का स्वामी, कोमल हृदयी, हिम्मती, मेहनती तथा गुरू गोबिन्द सिंह को दिए वचनों का रखवाला जिसने जिस्म का तिल-तिल सिख कौम को समर्पित कर दिया। उनकी समस्त जीवनशैली ने कौम के लिए नया इतिहास रच कर, उसमें बहादुरी, दया, सहृदयता, सच्चाई तथा कुर्बानी की नींव रखी, जिससे भविष्य के महलों को मज़बूती मिली।
बाबा बंदा सिंह बहादुर का जन्म 16 अक्टूबर, 1670 ई. को पुंछ ज़िले के गांव राजोरी ;जम्मूद्ध में हुआ। उनके पिता जी का नाम रामदेव था। वह राजपूत घराने से संबंध् रखते थे तथा किसान परिवार से संबंध् रखते थे। इतिहासकारों में उनके नाम से संबंध् में कई मतभेद हैं। उनके बचपन का नाम रामदास, लक्ष्मणदास, नारायणदास बताया जाता है। बाबा बंदा सिंह बहादुर का गांव राजोरी पठानकोट से लगभग 172 किलोमीटर तथा जम्मू से 102 किलोमीटर दूर है।
बाबा बंदा सिंह बहादुर ने किशोरावस्था में ही घुड़सवारी, तीरअंदाजी, शिकार करना, तलवार चलाने में परिपक्कता हासिल कर ली थी। उनके जिस्म में संयम तथा उद्यम की बिजली चमकती थी जिसकी वजह से वह भविष्य में शत्राुओं के लिए कहर बनकर बरपे।
इतिहास बताता है कि वह 15 वर्ष की आयु में एक वैराबी साध्ु जानकी प्रसाद के सम्पर्क में आए तथा उनको गुरू धरण कर लिया। उनके गुरू ने उनका नाम माधेदास रख दिया। वैरागी माधेदास ने नांदेड़ के समीप, गादावरी नदी के छोर पर योग साध्ना एकाग्रता के लिए एक शांत एवं अध्यात्मिक स्थान बनवाया। इस स्थान पर उन्होंने अपने जिस्म की समस्त आंतरिक शक्तियों को संयमित किया तथा जोगी का रूप लिया।
तीन सितम्बर 1708 को डेरे नांदेड़ में माधेदास की मुलाकात श्री गुरू गोबिन्द सिंह जी से हुई। गुरू जी माधेदास की शारीरिक शक्ति, एकाग्रबल तथा अन्य शक्तियां देखकर प्रसन्न हुए। उस समय उन्हें उस तरह के बहादुर, निडर, दलेर तथा संयमी व्यक्ति की आवश्यकता थी जिसमें नेतृत्व करने के समस्त गुण विद्यमान हों। बाबा बंदा बहादुर गुरू जी के सच्चे मित्र बन गए तथा गुरू जी की विचारधारा, सिद्धान्तों से सहमत हो गए। गुरू जी ने माधेदास का नाम बंदा सिंह बहादुर रख दिया। गुरू जी ने उन्हें एक जत्थेदार, एक जरनैल बना कर पंजाब की ओर भेजा। उनकी सहायता के लिए कुछ तीर, हथियार तथा अन्य सामग्री, चिन्ह इत्यादि भी दिए। बाबा बंदा सिंह बहादुर के साथ पांच सिंह साहिबान: खालसा बाबा विनोद सिंह, बाबा काहन सिंह, बाबा बाज सिंह, भाई दया सिंह तथा भाई रण सिंह भी पंजाब के लिए रवाना हुए। यह अक्टूबर 1708 के करीब की बात है।
बताया जाता है कि दुश्मनों ने गुरू गोबिन्द सिंह को धेखा देकर छुरे ;खंजरद्ध से ज़ख्मी कर दिया था। जब वह तीर चढ़ाने लगे तो ज़ख्म खुल गए जिस कारण वह प्रभु चरणों में लीन हो गए।
बाबा बंदा सिंह बहादुर ने गुरू जी के परिवार की शहीदी और गुरू जी का प्रभु चरणों में लीन होना उसके आक्रोश की ज्वाला बन गया। फिर क्या था? बाबा बंदा सिंह बहादुर ने यु( के मैदान में दुश्मनों के खूब दांत खट्टðे किए। उनके साथ काफी सेना भी थी। बाबा बंदा सिंह बहादुर ने सोनीपत, कैथल, समाना, घुढाम, ठसका, शाहबाद, मुस्तफाबाद, कपूरी, सफोरा, छतबनूढ़ कर कब्ज़ा किया। 12 मई 1710 को भयंकर यु( में सूबेदार वज़ीर खां मारा गया। 14 मई 1710 को सिख विजयी बनकर सरहिंद में दाखिल हुए। बंदे ने सढोरा तथा नाहन के बीच मुख्लिसगढ़ को अपनी राजधनी बनाया जिसका नाम ‘लोहगढ़’ रखा। यहां रह कर ही उन्होंने श्री गुरू नानक देव जी तथा श्री गुरू गोबिन्द सिंह जी के नाम पर सिक्के जारी किए। सहारनपुर, जलालाबाद तथा ननौता जीतने के बाद इसी तरह बाबा बंदा सिंह बहादुर अपनी बहादुरी के जौहर दिखाते हुए तथा दुश्मनों के दांत खट्टðे करते आगे ही आगे बढ़ते गए। अब सिख पंजाब के मालिक कहलाने लगे। उस समय का बादशाह बहादुर शाह स्वयं पंजाब में दाखिल हुआ तथा हालात के मुताबिक सिख पीछे आ गए।
बाबा बंदा सिंह बहादुर सहित सिख फिर लोहगढ़ के किले में आ गए। यहां उन्होंने एक ईर्ष्यालु, शत्राु राजा भीम चंद को मौत के घाट उतारा और चम्बा के राजा की पुत्राी साहिब कौर से विवाह करवा लिया। साहिब कौर की कोख से एक पुत्रा रंजीत सिंह पैदा हुआ।
18 फरवरी, 1712 को बादशाह बहादुर शाह की मृत्यु हो गई। बाबा बंदा सिंह बहादुर ने फिर चम्बा के क्षेत्रा से निकल कर कई क्षेत्रों पर कब्ज़ा किया। परंतु मुगल फौज उनके पीछे लगी हुई थी।
आखिर 7 दिसम्बर, 1715 ई. को मुगल फौज ने बाबा बंदा सिंह बहादुर तथा सिखों को भाई चंद की ऊंची विशाल हवेली में गुरदास नंगल में घेर लिया जिसको गुरदास नंगल की कच्ची गढ़ी या ‘गुरदास नंगल का थेह’ भी कहा जाता है। यह गढ़ी गुरदासपुर से पांच किलोमीटर दूर स्थित है। शाही फौज का सिखों ने डटकर मुकाबला किया। गढ़ी में सिखों को घेरकर आना, जाना, राशन तथा बाहरी प्रत्येक किस्म की सामग्री बंद कर दी। 7 दिसम्बर, 1715 को शाही फौज ने गुरदास नंगल की गढ़ी पर कब्ज़ा कर लिया।
इतिहास गवाह है कि बाबा बंदा सिंह बहादुर को शाही ;मुगलद्ध फौज कभी भी कैदी नहीं बना सकती थी तथा न ही उसको जीवित पकड़ सकती थी। उसके अपने ही साथी शाही फौज के साथ जा मिले। शाही फौज ने बाबा बंदा सिंह बहादुर के साथियों को अनेक लालच देकर खरीद लिया था। जिस कारण उन्होंने बाबा बंदा सिंह बहादुर के सभी भेद शाही फौज को दे दिए, इसी वजह से बाबा बंदा सिंह बहादुर शाही फौज के कैदी बने। शाही फौज ने बाबा बंदा सिंह बहादुर पर बहुत जुल्म किए। उनको भयंकर कष्ट दिए गए। उनको एक बड़े लोहे के पिंज़रे में बंद कर दिया गया। पिंजरा हाथी के ऊपर रखकर जलूस की शक्ल में लाहौर ले जाया गया। पिंज़रे के आगे-आगे सिखों के सिर नेज़ों पर ठूंसे गए। यह जलूस 27 फरवरी, 1716 को दिल्ली में दाखिल हुआ। बाबा बंदा सिंह बहादुर की पत्नी तथा उनके चार वर्षीय पुत्रा अजय सिंह को भी अनेक कष्ट दिए गए। 9 जून, 1716 को जलूस की शक्ल में बाबा बंदा सिंह बहादुर तथा उनके चार वर्षीय पुत्रा को अनेक सिखों के साथ कुतबमीनार के समीप ख्वाज़ा कुतबदीन, बख्तियार काकी के रोज़े के पास पहुचाया गया। बाबा बंदा सिंह बहादुर के पुत्रा अजय का दिल निकाल कर उनके मुंह में डाला गया। 9 जून, 1716 को दिल्ली में अनेक कष्ट झेलते हुए बाबा बंदा सिंह बहादुर शहीद हो गए। उनको मुस्लमान बनने को या मौत स्वीकार करने के लिए कहा गया परंतु वह हंस-हंस कर अपनी कौम पर जान न्यौछावर कर गए। इतिहास में बाबा बंदा सिंह का ना सुनहरे अक्षरों के साथ सदा अंकित रहेगा।
— बलविन्दर ‘बालम’