पिताजी
लाखों में एक हजारों में,
दुनिया के लाख सहारों में।
दम ठोंक आज कहता विरही,
सम्बन्ध पिता का प्यारों में।
वटवृक्ष सरिस छाया जिसकी,
भगवान सरिस माया जिसकी।
अपनी संतति के लिए जिए,
माता समान दाया उसकी।
कम खाकर भी जी लेता है,
अपने आँसू पी लेता है।
सहता है शीत-घाम सब कुछ,
बच्चों को सुख ही देता है।
अपने जो कुछ हो फर्क नहीं,
साधन -सुविधा में तर्क नहीं।
हर संतति का है धर्म यही,
श्रम जाये पिता का व्यर्थ नहीं।
माता की गाथा बहुत लिखि,
इतिहास ग्रन्थ के पन्नों पर।
साहित्य सभी झुक जाते हैं,
विरही बापू के चरणों पर।
है कोटि नमन हे पूज्य पिता,
तेरा चरित्र तो अनुपम है।
जितनी औकात हमारी है,
जितना लिख पाऊँ कम ही है।
— वीरेन्द्र कुमार मिश्र ‘विरही’