पवित्र रिश्ता
रिश्तों का यह कैसा संबंध है
न जान पहचान, न खून का रिश्ता
फिर भी ऐसा लगता है
जैसे हो पूर्व जन्म का कोई रिश्ता।
अप्रत्याशित था हम दोनों का
आभासी दुनिया से वास्तविक दुनिया में
जीवन के उत्तरार्द्ध में यूंँ मिलना
विश्वास और अपनत्व का
ये कैसा प्रतिमान था?
हम अंजान थे एक दूजे से
पर हमें आभास तक न हुआ,
जब हम मिले थे पहली बार
हाथ उसके चरण छूने को
स्वमेव ही आगे बढ़ गए,
उसने बीच में ही हाथ पकड़
गले से लगा मेरी पीठ थपथपा
ढेरों आशीष दे डाला,
बड़ी थी या छोटी हमें नहीं पता
पर उसके इस दुलार ने
मेरी आँखों को नम कर डाला।
चंद घंटों में ऐसा कुछ भान हो गया
हमारे बीच पवित्र रिश्ता बन गया।
ये कैसा रिश्ता है
जो हमारा आपस में जुड़ गया है,
इसका सूत्र इस जन्म से है
या है पूर्वजन्म का डोर
जो अभी तक टूटा नहीं है।
उसे माँ कहूँ, बहन या फिर बेटी
छोटी कहूँ या बड़ी
कोई फर्क नहीं पड़ता है।
उसमें तो अपनत्व का
हर अक्स नजर आता है,
उसके स्नेह दुलार के सम्मुख
मेरा सिर नतमस्तक हो जाता है
ऐसा है हम दोनों का पवित्र रिश्ता
जो भावनाओं से मजबूत हो रहा है।