ग़ज़ल
विश्वास करा भी दूं तो बताओ क्या फायदा ।
ज़ख्म दिखा भी दूं तो बताओ क्या फायदा।
आंखें बंद करके अंधा बन कर अगर मैं।
रात को दिन बता भी दूं तो क्या फायदा।
लूट कर सब कुछ संग गैरों के हो लिए।
अपना पन मैं जता भी दूं तो क्या फायदा।
दो राहे पे आ कर राहें हुईं तो क्या हुआ।
तस्वीर दिल से हटा भी दूं तो क्या फायदा।
कहां उठ कर बात करेगा बेजान जिस्मअब।
मजार पे अश्क बहा भी दूं तो क्या फायदा।
आखिरी सांसों तक रोशनी नसीब ना हुई।
कोने में दीया जला भी दूं तो क्या फायदा।
हिसाब पूरा करके किबाड़ बंद कर लिए।
घर अपना सजा भी दूं तो क्या फायदा।
— सुदेश दीक्षित