ग़ज़ल
बात कोई न थी पर खटकती रही
मैं यूं खामोश तन्हा भटकती रही ।
दिल ने चाहा के हर दायरा तोड़ दूं
चूड़ियां हथकड़ी सी खनकती रही।
हाल ए दिल उनसे् कह पाए कभी
बात होंठों पे आकर अटकती रही।
रो न पाए के आंखों में तेरी तस्वीर है
पर आंखों से ओस जैसी टपकती रही ।
सब हाथ में था मगर न रिहा हो सके
चाभी दीवार पर ही लटकती रही।
वो थे महफ़िल में अपनों की फिर भी सुनो
एक मायूसी उन पर चमकती रही ।
सोचती हूं के जानिब कहूं चुप रहूं
कली चाहत की दिल में चटकती रही।
— पावनी जानिब