गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

नज़र की तल्खियाँ देखीं पिघलना आ गया मुझको
लगी जो चोट दिल पर तो सँभलना आ गया मुझको

ग़मों ने डाल कर डेरा मुझे अब तक सताया था
अभी तो सुन ज़रा प्यारे खिसकना आ गया मुझको

ग़ज़ल की तुक मिलाते थे सुनो हम आज तक देखो
मगर ये धुन सही देखो कि लिखना आ गया मुझको

हमीं ने ख़ाक छानी राह की मंज़िल मिली देखें
चले जब तेज़ क़दमों आज बढ़ना आ गया मुझको

सुहानी रात का आलम अकेले हम चले सुन लो
बड़े खुश हैं सपन में तो उतरना आ गया हमको

रही थी रात आधी तब बहुत ख़ौफ़नाक मंज़र था
( हवा पुरहौल थी बेशक बदलना आ गया मुझको

लगा खंजर भी ही था बढ़े पकड़े उसे भागे
मुसीबत से सुनो तब तक निकलना आ गया मुझको

— रवि रश्मि ‘अनुभूति