बैरन सावन
कविता ॥ बैरन सावन ॥
रचना ॥ उदय किशोर साह ॥
मो० पो० जयपुर जिला बाँका बिहार
टिप टिप टिप टिप बदरा टपके
पूरवाई का लगे वर्षा का झटके
गगन पे बदरा ने ली है अंगड़ाई
झूमा है सावन चाँदनी शरमाई
बिजुरी जब जब नभ पे चमके
तन मन में प्रेम की ज्वाला दहके
आँचल में पड़ती जब जब फुहार
तन पे चढ़ती है प्रेम की खुमार
चारों ओर घटा का है यहॉ आलम
घर से दूर गया परदेशी बैरी बालम
कैसी बैरन सावन ये है आई
विरहा से विरहन की मन तड़पाई
जा रे बदरा पिया जी को बतलाना
अपने घर में भी है यहाँ पानी दाना
अब नहीं सुननी है पपिहरा की ताना
परदेशी बलम को संदेशा तूँ दे आना
क्यूँ नहीं आती तुम्हें याद मेरे मीत
क्यूं भूला तुम जग की प्रीत की रीत
जब जब आँगन में बुंदे टपक आती
पिया तेरी बस्ती की याद है सताती
चारों ऒर हरियाली है अब छाई
पर तन मन में अगन है लगाई
भीगा भीगा पर्वत का तन मन
प्यासी रह गई मेरी अभागन सावन
नदियों में उफान भी है आई
दादुर ने नई गीत है गुनगुनाई
वन उपवन की ये प्यास बुझाई
पिया बिन सावन कबहूँ ना सुहाई
मन की आस मेरी हुई ना पूरी
दिल की ख्वाब रह गई अधुरी
कैसी अगन सावन ने तन में लगाई
तन मन में प्यार की अगन सुलग आई
— उदय किशोर साह