ग़ज़ल
यहां पर दिल जिगर रूहें और झूठा प्यार बिकते हैं,
इस दुनिया की मंडी में कमीने यार बिकते हैं,
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शर्म फिर भी थी पहले छुपके होते थे ये सब धंधे,
शराफत और ईमान अब तो सरे-बाज़ार बिकते हैं,
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अपनापन हुआ ज़ख्मी भरोसा आह भरता है,
चंद सिक्कों के लालच में जो रिश्तेदार बिकते हैं,
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नदियां दूध की जिस मुल्क में बहती थीं सदियों से,
वहां अब कौड़ियों में भूख से लाचार बिकते हैं,
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सरक जाता है कंधे से जब पल्लू फूलवाली का,
तब कहीं जा के फूल उसके यहां दो-चार बिकते हैं,
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वक्त के साथ कीमत खत्म हो जाती है हर शै की,
शाम को रद्दी बनकर सुबह के अखबार बिकते हैं,
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आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।