कहानी – बेदखल
आज विरल ने अपने पापा को अपनी जिंदगी से बेदखल कर दिया था।कोर्ट में जा वकील की मदद से कानूनी रूप से वे अलग हो गए थे।घर पहुंचते ही उसने वे कागजात अपनी मां क्षमा के कृष हाथों में सौंप दिए थे।क्षमा का नाम ही क्षमा नहीं वह खुद क्षमा की मूरत बन गई थी। इन 40 सालों की शादीशुदा जिंदगी में बहुत कुछ देख और सह चुकी थी।18 साल पूरे होते होते ही शादी हो गई थी।बिदाई पे दी मां की शिक्षा का सारी उम्र पालन किया था।मां बोली थी,” अब वही तेरा सही मायने में घर हैं बेटी दो बार विदा होती हैं एक बार डोली में मायके से और दूसरी बार अर्थी में ससुराल से।धीरे धीरे ससुराल में सब ठीक हो जाता हैं, एक दूसरों को समझ कर के।वे लोग ज्यादा हैं तू अकेली हैं तो तुझे ही एडजस्ट करना पड़ेगा” सब सुनती रही जवाब देने की हिम्मत नहीं थी उसकी कि पूछे,” मां मेरा कौन सा घर हैं?”
सास तो थी ही ऐसी वो थी ससुर भी कम नहीं थे हर बात में नुक्स निकलते थे। देवर तो बस पूछो मत दिन भर आवारा गर्दी कर खाने के समय नखरों से भरे टिप्पणियां सास को कुछ न कुछ कहने का मौका देती थी।कंवारी ननद की भावनाओं को देख पति के साथ घूमने भी नही जा पाती थी।। दफ्तर से आते ही पति के हाथ से बॉटल और चखना ले रसोई में जा ग्लास और बोटल और चखना ट्रे में सजाके ले जाना और पीने के बाद उसकी तरफ से दी जाने वाली यातना सहना बहुत ही मुश्किल था।जैसे तैसे उसकी शादी हो गई।उसकी शादी में काम करके जैसे टूट सी गई थी वह फिर भी वह खुश दिखने की कोशिश करती रहती थी।
सोचा था ननंद की शादी होने के बाद सोचा था पति के साथ सुख से घूमेगी फिरेगी लेकिन ये क्या उसका पति उसकी ओर से लापरवाह हो चुके थे शयन कक्ष के बाहर उसकी कोई हैसियत नहीं रह गई थी।वह अपने नसीब को दोष दे कर सब कुछ सह लेती थी।
कुछ अच्छे कर्म किए होंगे की विरल जैसे एक स्वस्थ और प्यारे बच्चे ने उसकी कोख से जन्म लिया।उसकी किलकारियों में और बाल लीलाओं में वह अपना सुख देख ने लगी।पति से प्यार की उम्मीद तो नहीं थी किंतु पी कर मारने वाले पति को प्यार करना उसे सज़ा सा लगता था।लेकिन खारे समुंदर में मीठी झिल था विरल और उसके प्रति उसका प्रेम।उसी को देख दिन काटती रही।और भगवान ने भी सुनली थी उसकी,बहुत ही लायक बेटा था उसका।
जैसे जैसे बड़ा होता गया मां से उसका लगाव और जुड़ाव बढ़ता गया था। सास ससुर की मृत्यु के बाद भी पति की हालत में कोई सुधार नहीं आया किंतु विरल अब पढ़ लिख कर साहब बन गया था।उसका पति भी कमजोर हो गया था किंतु जुबान का सारा असर उसके माता पिता उसे विरासत में दे गाएं थे।
ये सब देख एक दिन विरल ने पूछ ही लिया,” मां क्या जरूरत थी आपको ऐसे रिश्ते को उम्र भर निबाहने की?आप पढ़ी लिखी हो कोई नौकरी कर आप अपने पैरों पर खड़ी हो सकती थी।” तब उसने मुंह खोला,” क्या करती बेटे समाज में अकेली स्त्री का रहना बहुत मुश्किल होता हैं उपर से घर से मिली शिक्षा,घर नहीं छोड़ना चाहे कुछ हो जाए!”
ये सब सुन विरल कुछ सोच में पड़ गया और दूसरे दिन अदालत में पहुंच जो काम उसकी मां नहीं कर पाई वह उसने कर दिया।अपने पिता को अपनी और अपनी मां की जिंदगी से ’ बेदखल ’कर दिया।
— जयश्री बिरमी