गीतिका
बदल रहा है आज आदमी।
बना हुआ है राज आदमी।।
पड़ी हुई है सबको अपनी,
क्यों परहित में खाज आदमी।
तिनका नहीं किसी को देता,
नोंच रहा बन बाज आदमी।
अपना महल सुरक्षित करता,
तोड़ औऱ की छाज आदमी।
मिले किसी को भले न रोटी,
सिर पर चाहे ताज आदमी।
लगती लाज स्वेद से अपने,
खा आवंटित नाज आदमी।
अपना ही अस्तित्व बचाए,
गिरा और पर गाज आदमी।
चुभन नहीं शूलों की जाने,
भोग रहा सुख – साज आदमी।
‘शुभम्’ सुर्खियों में छपता है,
आता क्या पर काज आदमी?
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’