अनिद्रा का बढ़ता संकट
आधुनिकता की चपेट में हम
ज्यों ज्यों आते जा रहे हैं,
इंसान तो हैं मगर
मशीन बनते जा रहे हैं।
तकनीक पर बढ़ती निर्भरता
सुख सुविधाओं का बढ़ता लालच
भागमभाग होती दिनचर्या
कल कारखानों सरीखी होती जिंदगी
जीवन की सामान्य दैनिंदनी पर
चहुंओर से आघात कर रही है,
जिंदगी अब जिंदगी कहां रही
संकटों के प्रहार रोज सह रही है,
कराहती, सिसकती, घिसटती सी लग रही है।
न दिन को चैन ,न रात को आराम
थकावट तो है मगर होता है बस काम ही काम,
तन से ज्यादा मन थकता है,
नींद हमले कर तो रही है
पर सोने का सूकून नहीं मिलता है।
कुछ मजबूरियां, तो कुछ दुश्वारियां
हमें बस भगाती जा रही हैं,
कुछ लोभ, कुछ औरों से प्रतिस्पर्धा
कुछ बराबरी की होड़,
हमें चैन की साँस भी न लेने दे रही है।
हम सोते तो हैं पर सो नहीं पाते
नींद में भी जगने जैसे भाव रहते,
हमें निद्रा चाहिए, हम सो कहाँ पाते?
जैसे हम सूकून से भोजन नहीं कर पाते
जल्दी जल्दी ठूंस लेते हैं,
चलते फिरते पेट की आग बुझा लेते हैं
शुद्ध सात्विक कम, फास्ट फूड की ओर
जल्दी जल्दी भागते हैं।
वैसे ही चैन से अब कहाँ सो पाते
बस सोने की औपचारिकता निभाते,
अनगिनत रोगों को निमंत्रण देते।
क्या करें मजबूरी है हमारी
क्योंकि हम संतोष से
कोसों दूर भागते जा रहे हैं
हाय हाय करते एक एक दिन
बस किसी तरह काटते जाते हैं।
आधुनिक विडंबना तो देखिए
कि हम अपनी निजी सुख सुविधा की आड़ में
खुद पर ही प्रहार करते,
अनगिनत बीमारियों संग
अनिद्रा भी हम ही हैं लाते,
तमाम परेशानियों के साथ
अनिद्रा को अपना साथी बनाते,
अपना और अपने परिवार का
संकट तो बढ़ाते ही हैं हम
अनिद्रा को वैश्विक बीमारी का तमगा दिलाने में
बड़ी शिद्दत से अपनी भूमिका निभाते।
फिर भी बहुत खुश हो रहे हैं
क्योंकि हम आधुनिकता के रंग में
बड़े सलीके से रंगते जो जा रहे हैं
अनिद्रा को भी आधुनिकता का
बड़ी शान से जामा पहना रहे हैं,
अनिद्रा का शिकार होते जा रहे हैं
फिर भी चेहरे शिकन नहीं ला रहे हैं
क्योंकि आधुनिकता की कतार में
हम भी तो आकर खड़े ही नहीं हैं
आखिर आगे भी तो बढ़ रहे हैं,
अनिद्रा को आधुनिकता के रंग चढ़ा रहे हैं।