कविता

द्रौपदी : तब और अब

 

एक थी वो द्रौपदी

जो गुहार लगाती, दुहाई देती

धर्म, मर्यादा और रिश्तों की,

फिर भी असहाय सी शर्मिंदा हो

कृष्ण कन्हैया को अपनी रक्षा की खतिर

पुकारने को विवश हो गई,

माखन चोर ने लीला ऐसी रची

कि रिश्तों की ही नहीं

नारी मर्यादा की आखिर

उस समय लाज बच गई।

मगर आज की द्रौपदी

किसी और मिट्टी की बनी है,

हौसले की मीनार है,

न टूटी, न बिखरी, न हारी

न याचना, न लोभ, न भीख की चाह

न एहसान करे कोई

ऐसा कोई लालच भाव

निर्विकार भाव से समर्पित

अपने कर्म, कर्तव्य पथ पर

अविराम चलती हुई

धरती से शिखर तक

सबसे पीछे खड़ी होकर भी

आज देखिये सबसे आ गई।

समय की यही गति है कि

वो द्रौपदी महाभारत की सूत्रधार

तो ये द्रौपदी भारत की सरकार बन गई

चुपचाप ही आगे बढ़ती रही

बिना किसी आकांक्षा के देखिए

आज खुद भारत की राष्ट्रपति ही नहीं

प्रथम नागरिक भी बन गई,

द्रौपदी गौरवान्वित हुई या नहीं

ये तो खुद द्रौपदी ही जाने

मगर भारतभूमि जरुर जागृति हो गई

द्रौपदी को पाकर उसकी बाछें खिल गईं,

क्योंकि आज शीर्ष पर

सबसे कमजोर बेटी जो पहुंच गई,

समूचे भारत को विश्व पटल पर

नई पहचान के साथ छा गई।

 

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921