ग़ज़ल
कोई मतला, कोई मक्ता नहीं लिक्खा मैंने
हुई मुद्दत नाम तेरा नहीं लिक्खा मैंने
चाहता तो तुझे बदनाम भी कर सकता था
पर कातिल तुझे अपना नहीं लिक्खा मैंने
बहा के अश्क बेशुमार कोरे कागज़ पर
कौन कहता है ख़त पूरा नहीं लिक्खा मैंने
ज़माने वालो मेरा जुर्म है फकत इतना
एक ज़ालिम को फरिश्ता नहीं लिक्खा मैंने
गले मिलने के बहाने दोस्त ने खंजर
कैसे सीने में उतारा नहीं लिक्खा मैंने
खौफ सैले-बला-खेज़ का दिया उसने
नाखुदा को मगर खुदा नहीं लिक्खा मैंने
— भरत मल्होत्रा