पीले सुनहरे फूलों के गजरे तुम लटकाए हो,
कहो अमलतास तुम किससे मिलने आए हो।
धरती तपती लोहे सी गर्म हवाएं चलती हैं,
खिलखिला कर हंसते हुए तुम सूरज से होड़ लगाते हो।
डाल-डाल पर झूला झूले तुम इतराते मंडराते हो,
खग को देखकर आश्रय मंद-मंद मुस्काते हो।
धरती को किए पण समर्पित लेश मात्र भी गम नहीं,
विषम परिस्थिति में रहकर भी उदासी का नाम नहीं।
सुबह सैर पर जाते ही तुम अभिनंदन करते हो,
पलाश को देकर मात भरी दुपहरी खिलते हो।
कंदील सम लटके डालो पर लू में भी झूल रहे,
हल्के फुल्के झुमकों को हवा संग तुम तोल रहे।
खड़े सड़क के दोनो ओर देखा तुमने भूत वर्तमान,
नौनिहालों की चहलकदमी इमारतों की उठान।
संघर्ष की देकर सीख जनमानस को उकसाते हो,
धूप को पीकर घूंट-घूंट फिर कुंदन बन जाते।
— डॉ. निशा नंदिनी भारतीय