सामाजिक

दान की महिमा

धर्म के चार चरण सत्य, दया, तप और दान है। कलि काल में यूँ समझो एक दान का चरण ही प्रधान है..चलो किसी गरीब की झोली में अपने हिस्से के चार कण भरकर, कर लें कुछ नेक काम मौत की गोद में विलय होने से पहले, क्यूँकि कम नहीं होता देने से किसीको अपनी कोठी का बाजरा। बल्कि बढ़ती है बरकत रहमत उपरवाले की। देह दान दे, योगदान दे, वित्त दान दे नेत्र दान दे, अपने बस में जो है जितना देने की वृत्ति को दे मान।
दान की महिमा अपरंपार है पर दान, पुण्य, धर्म की परिभाषा समझे बिना हम सदियों से चली आ रही परंपरा को दोहराए जाते है। ईश्वर को खुश करने के लिए रिश्वत दे रहे है। हम ये नहीं समझते की असल में ईश्वर कैसे खुश होते है। महज़ उठते-बैठते नाम स्मरण, दीन दु:खियों की सेवा और जरूरतमंदों की मदद सत्कर्मों की गठरी बाँधने के लिए पर्याप्त है। मन वचन कर्म से किसीका न बुरा सोचो, न बुरा करों यही सच्चा धर्म है।
ईश्वर जो जीव मात्र और कण-कण में है उसे हम नहीं देख पाते, न पहचान पाते है पर उस ईश्वर के लिए करोड़ों-अरबों रूपये खर्च करके मंदिर बनवाते है। सोचिए ज़्यादा जरूरी क्या है? हर गरीब के भीतर बैठा जगदीश? या मंदिरों में पत्थर की मूर्ति बनकर बैठे जगदीश।
सावन मास में हम देखते है शिव मंदिरों में शिवलिंगों पर दूध की नदियाँ बहा देते है लोग, और वो दूध गटरों में बह जाता है । कोई ये नहीं सोचता की इस दूध की जरूरत असल में किसको है। मंदिर के बाहर छोटे-छोटे बच्चे, बुढ़े भीख मांगने बैठे होते है, दो थैली दूध उनके पेट की आग बुझा सकती है।
मंदिरों की दान पेटियाँ पैसों से छलक रही होती है, जो ईश्वर हमें देता है उसको कोई जरूरत नहीं उन पैसों की। वो चार पैसे हमें इसलिए देता है ताकि हम जरूरतमंदों की मदद कर सकें। फूल, फल, नारियल, प्रसाद बेचने वालों से हम पाँच रुपये के लिए मोल भाव करते है और दान पेटी में सौ हज़ार देने से नहीं हिचकिचाते। क्यूँकि वहाँ हमारा ये भाव होता है की जितना दान पेटी में डालेंगे उससे कई गुना ईश्वर लौटाएंगे। ये दान नहीं रिश्वत हुई। मंदिरों की दान पेटी में नहीं डालोगे तो चलेगा उस गरीब को पाँच रुपये कीमत से ज़्यादा दोगे तो भगवान भी खुश होंगे।
कई लोग सोने का मुकुट, सोने के गहने बनवाकर मंदिरों में भगवान को भेंट चढ़ाते है, अरे साक्षात जगदाधार को इसकी जरूरत नहीं। कई बच्चें भूखे पेट सोते है, कई बच्चें पैसों के अभाव से शिक्षा से वंचित रहते है, सुविधाओं के अभाव से कई सारी परेशानियों का सामना करते है। हमारे आसपास ऐसे बहुत सारे जरूरतमंद होते है जैसे कि अपने घर में काम करने वाले, वाॅचमैन और सफ़ाई करने वाले इनके बच्चों को आगे बढ़ाने में मदद करें। अगर उपरवाले ने आपको समृद्ध बनाया है तो ऐसे बच्चों के लिए खर्च करो पैसे, ईश्वर सौ गुना इस दान के बदले अवश्य लौटाएंगे।
दान की गरिमा इसी में है अगर किसी भूखे को खिलाने का कभी मन करे तो बचा कूचा या झूठन मत खिलाइये, कभी ताज़ा खाना बनाकर किसी गरीब को खिलाईये एक आत्मसंतोष मिलेगा।दान-धर्म का सही ज़रिया अपनाईये और सही जगहों पर दान करके पुण्य कमाईये। अपने पैसों को व्यर्थ न गंवाईये।
— भावना ठाकर ‘भावु’ 

*भावना ठाकर

बेंगलोर