राजनीति

शिक्षा का स्वरुप और बढ़ती राजनीति

मानव एक सामाजिक प्राणी है। उसमें ज्ञान प्राप्त करने व ज्ञान की क्षुधा-तृप्त करने की असीम अभिलाषा व क्षमता रहती है। वह विविध विषयों का अध्ययन, उनकी मीमांसा, अन्वेषण, विश्लेषण करने में असीम आनन्द का अनुभव करता है। ज्ञान द्वारा वह अपने लोक-परलोक के ऐहिक, लौकिक व धार्मिक जीवन तथा अपने व्यक्तित्व को सुधारने की आकांक्षा रखता है।
प्राचीन युग में मानव ने शिक्षा की बाकायदा पद्धतिबद्ध व्यवस्था अपने सर्वांगीण विकास के लिए की, इस काल में शिक्षा को अत्यधिक महत्व दिया गया था। भारत ‘विश्वगुरु’ कहलाता था। विभिन्न विद्वानों ने शिक्षा को प्रकाशस्रोत, अन्तर्दृष्टि, अन्तर्ज्योति, ज्ञानचक्षु और तीसरा नेत्र आदि उपमाओं से विभूषित किया है। उस युग की यह मान्यता थी कि जिस प्रकार अन्धकार को दूर करने का साधन प्रकाश है, उसी प्रकार व्यक्ति के सब संशयों और भ्रमों को दूर करने का साधन शिक्षा है। प्राचीन काल में इस बात पर अधिक बल दिया गया कि शिक्षा व्यक्ति को जीवन का यथार्थ दर्शन कराती है। तथा इस योग्य बनाती है कि वह भवसागर की बाधाओं को पार करके अन्त में मोक्ष को प्राप्त कर सके, जो कि मानव जीवन का चरम लक्ष्य है। इस युग में गुरुजनों का बड़ा ही ताज़ीम, आदर और मान सम्मान था। इस युग में गुरू को भगवान के समान माना जाता था। हालांकि हमारी संस्कृति का पहचान वैदिक काल शिक्षा से होती हैं। इतिहासकारों द्वारा वैदिक काल का समय 2500 ई॰ पू॰ से 500 ई॰ तक माना जाता है। भारत में सर्वप्रथम शिक्षा वैदिक शिक्षा ही है, जो हमारी संस्कृति की पहचान कराती है। इस शिक्षा पद्धति में शिक्षा का तात्पर्य वेदों के अनुसार शिक्षा प्राप्त करना था तथा शिक्षा का अर्थ आत्मानुभूति एवं आत्मबोध कराना था। इस काल में शिक्षा का उद्देश्य पवित्रता की भावना का विकास करना, चरित्र निर्माण करना, व्यक्तित्व तथा सामाजिक एवं धार्मिक भावना का विकास करना और नैतिक मूल्यों का ज्ञान करना होता था। इस काल में नारियों को शिक्षा प्राप्त करने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। इस काल में शिक्षा का सर्व प्रमुख उद्देश्य छात्रों के चरित्र का निर्माण करना था जिससे उनमें अच्छे संस्कारों का विकास हो सके।। मध्य युग में शिक्षा व्यवस्था के स्वरूप का निर्माण दान तथा धार्मिक संस्थाओं के द्वारा हुई। इस काल में इस्लामी शिक्षा का सर्वागीण विकास हुआ। शिक्षा का मुख्य आधार धर्म था। इसलिए इसे ‘इस्लामी शिक्षा काल’ या मुगल शिक्षा काल’ के नाम से भी जाना जाता है। सर्वप्रथम इस्लामी शिक्षा का लक्ष्य मुसलमानों में ज्ञान की वृद्धि करना था। भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना होते ही इस्लामी शिक्षा का बेहद प्रसार होने लगा। फारसी जाननेवाले ही सरकारी (उस वक्त राजतंत्र) कार्य के योग्य समझे जाने लगे। हिंदू और हिन्दी वाले भी ,अरबी और फारसी पढ़ने लगे। बादशाहों और अन्य शासकों की व्यक्तिगत रुचि के अनुसार इस्लामी आधार पर शिक्षा दी जाने लगी। बालक का नैतिक और चारित्रिक विकास करने के लिए उसे शेख सादी की प्रसिद्ध पुस्तकें, ‘बोस्ताँ’ एवं ‘गुलिस्ता’ पढ़ाई जाती थीं और पैगम्बरों की कथाएँ तथा मुस्लिम फकीरों की कहानियाँ सुनाई जाती थीं। इनके अतिरिक्त, उसको ‘लैला-मजनू’, ‘यूसुफ-जुलेखा’, ‘सिकन्दरनामा’ आदि काव्यों का ज्ञान प्रदान किया जाता था। हालांकि इस काल में भी शिक्षकों का सम्मान था। छात्र और शिक्षकों को आपसी संबंध प्रेम और सम्मान का था। सादगी, सदाचार, विद्याप्रेम और धर्माचरण पर जोर दिया जाता था। इस काल में पर्दा प्रथा होने के कारण स्त्री शिक्षा में प्रगति नहीं हो सकी, इस काल में छोटे छोटे अपराधों पर काफी कठोर शारीरिक दण्ड दियें जाते थें जिससे छात्र शिक्षकों से भयभीत रहते थे, और अपनी समस्याओं का समाधान, डर के कारण नहीं करा पाते थें। इतिहास के अध्ययन से पता चलता है कि प्रत्येक धार्मिक संस्था, कुछ दूरदर्शी व्यक्तियों, विद्वानों ने शिक्षा के क्षेत्र में राज्य तथा राजा के हस्तक्षेप का डटकर विरोध किया। परन्तु जैसे-जैसे मानव में विवेक बढ़ता गया, वैसे-वैसे शिक्षा में राज्य ने शिक्षा के कार्य में करीब सत्रहवीं शताब्दी में(से) विशेष हस्तक्षेप करना आरम्भ कर दिया। शैने:-शैने: उन्निसवीं शताब्दी तक शिक्षा पर पूर्ण नियंत्रण हो गया। प्राचीन भारत में जिस शिक्षा व्यवस्था का निर्माण किया गया था, वह समकालीन विश्व की शिक्षा व्यवस्था से बहुत ही समुन्नत व उत्कृष्ट थी, लेकिन कालान्तर में भारतीय शिक्षा व्यवस्था का जबरदस्त ह्रास हुआ, विदेशियों ने यहाँ की शिक्षा व्यवस्था को उस अनुपात में विकसित नहीं किया या नहीं होने दिया, जिस अनुपात में होना चाहिये था, उल्टा यहाँ कि शिक्षा व्यवस्था को जमींदोज करने का प्रयास किया गया। चाहे वह बात प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय की तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी द्वारा जलाकर नष्ट करने कि हो अथवा मैकाले द्वारा यहाँ कि शिक्षा व्यवस्था, संस्कार और संस्कृति को बदलने का पुरजोर प्रयास हो। मैकाले द्वारा अंग्रेजी शिक्षा के संक्रमण के कारण भारत की गुरुकुल शिक्षा प्रणाली का बड़ा ही दु:खदायी अन्त हुआ और इस प्रकार भारत में कई गुरुकुल जबरन तोड़े गए और उनके स्थान पर कान्वेंट और पब्लिक स्कूल खोले गए। अपने संक्रमण काल में भारतीय शिक्षा को कई चुनौतियों व समस्याओं का सामना करना पड़ा। आज भी ये चुनौतियाँ व समस्याएँ हमारे सामने हैं, जिनसे दो-दो हाथ करना हैं। प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो अपनी पुस्तक ‘द रिपब्लिक’ में बताते हैं कि समाज के लिए सरकारें क्यों जरूरी हैं। किसी समाज को बनाने या बिगाड़ने के पीछे सरकार का बड़ा ही महत्वपूर्ण हाथ होता है। यदि सरकार चाहें तो सिस्टम को सुधार सकती हैं और चाहे तो बिगाड़ सकती हैं। राज्य एक सर्वशक्तिमान तथा सर्वश्रेष्ठ सामाजिक संस्था है जो अपने निर्माणकर्ताओं से उच्च एवं श्रेष्ट भौतिक अस्तित्व रखता है। यह संस्था केवल परामर्श ही नहीं देता अपितु किसी कार्य को करने के लिए अपनी राजनीतिक शक्ति का प्रयोग भी करता है। प्रत्येक राज्य की विभिन्न आवश्यकतायें, आर्थिक, समस्यायें, धार्मिक परिस्थितियाँ, प्रशासनिक व्यवस्था, राजनीतिक विचारधारा, तथा संस्कृति अलग-अलग होती है। इन सबको प्रभावित करने के लिए राज्य विभिन्न साधनों का प्रयोग करता है। और प्रत्येक राज्य की प्रगति ऐसे नागरिकों पर निर्भर करती है जो प्रत्येक समस्या को स्वतंत्र रूप से चिन्तन करके आसानी से सुलझा सकें। ऐसे सुयोग्य, सचरित्र तथा सुनिश्चित नागरिकों का निर्माण केवल शिक्षा के द्वारा ही किया जा सकता है। इस दृष्टि से प्रत्येक राज्य शिक्षा की अच्छी से अच्छी व्यवस्था करना और उसका उचित और ससमय संप्रेषण अपना परम कर्त्तव्य समझता है। और शिक्षा संप्रेषण कार्य का समुचित दायित्व एक शिक्षक के ऊपर होता हैं। यह सत्य हैं कि बच्चे जहां देश के भविष्य हैं वही शिक्षक राष्ट्र निर्माता की उपाधि से नवाजे गए हैं। परन्तु आज के वर्तमान समय और परिदृश्य में हर प्रदेश में शिक्षकों की नियुक्ति, सेवा शर्तों, नियमितीकरण, स्थायीकरण और वेतन-भत्तों को लेकर विभिन्न आंदोलन हो रहे हैं। राष्ट्र निर्माताओं की चिंता किसी को नहीं। हर जगह शिक्षकों को लानतें या लाठियां मिल रही हैं। अब बताइए कि वे शिक्षा की धुरी में कहां रहे ? उन पर लगभग समाप्त हो चुका विश्वास कैसे बहाल हो ? समय-समय पर शिक्षाविदों द्वारा राष्ट्र की मुख्य धुरी शिक्षा और शिक्षकों को लेकर जो सुझाव या अनुशंसाएं दी जाती रही हैं। उनका हाल क्या होता है, इसका अंदाजा केवल इसी एक उदाहरण से लगाया जा सकता है, जब विगत कुछ साल पहले अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त एक जाने-माने शिक्षाविद का दर्द सामने आया। उनकी वर्षों पूर्व की गई अनुशंसाओं को कोई तवज्जो नहीं दी गई। मामला फिर चाहे बच्चों पर बस्तों के बढ़ते बोझ का हो या संपूर्ण राष्ट्र में एक जैसी शिक्षक भर्ती का या फिर अखिल भारतीय शिक्षा सेवा के गठन का, शिक्षाविदों की सलाह और अनुशंसाएं क्या अपने अंजाम तक पहुंच पाती हैं ? यह एक यक्ष प्रश्न है। जो भी योजनाएं लाई और लागू की जाती हैं उनमें शिक्षकों के मैदानी अनुभवों को कोई तवज्जो नहीं मिलती, न ही नीतिगत फैसलों में उनकी उपलब्धियों का लाभ मिलता हैं। शैक्षिक गुणवत्ता और नवाचार एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती। शिक्षक, शैक्षिक गुणवत्ता की मुख्य धुरी हैं। नवाचार के लिए शिक्षक का न केवल मनोवैज्ञानिक तौर पर मजबूत होना जरूरी है बल्कि उसमें शैक्षिक गुणवत्ता में अभिवृद्धि के लिए भीतर से कुछ नया कर गुजरने की तथा अपने विद्यार्थियों में अधिगम को अभिरुचिपूर्ण बना कर उसे अधिकतम आनंददायी बनाने की तीव्र उत्कंठा होनी चाहिए। इसके बिना नवाचार के प्रयत्न फलीभूत नहीं होंगे। रचनात्मक प्रेरणा इस संबंध में बहुत महत्त्वपूर्ण और कारगर घटक होती है। सामान्यत: इस प्रकार का शिक्षक के प्रति उत्साहवर्धन, प्रेरणा, प्रोत्साहन का हमारे यहां घोर अभाव है। अक्सर यह कहां जाता है कि किसी भी देश के सभ्यता, संस्कारों अथवा मूलभूत बातों को यदि समाप्त करना है तो वहां की युवा पीढ़ी को भ्रमित कर दीजिए। वह देश अपने मूल चरित्र को विस्मृत कर देगी। वर्तमान में देश के तमाम शिक्षा क्षेत्रों में इसी प्रकार के दृश्य व परिदृश्य दिखाई दे रहे हैं, जो भारतीय संस्कारों से बहुत दूर होने का आभास करा देते हैं। इसके पीछे शिक्षा देने वाली व्यवस्था एक कारण हो सकती है। लेकिन वर्तमान में जिस प्रकार से देश की शिक्षा व्यवस्थाओं व शिक्षण संस्थाओं का लगातार राजनीतिकरण हो रहा है अथवा राजनीतिक हित के लिए उपयोग किया जाने लगा है, उससे यही लग रहा है कि शिक्षकों व छात्रों के दिल और दिमाग में कहीं न कहीं नकारात्मकता भरने का कार्य किया जा रहा हैं। येसा लग रहा जैसे उचित, समुचित, वाजिब, मुनासिब पठन-पाठन से विचलित करने का प्रयास किया जा रहा हो। वास्तव में देखा जाय तो इन सब का कारण शिक्षा का राजनीति से जोड़ना ही हैं। और इन कार्यों में कुछ बिचौलिया लोग सक्रियता पूर्वक अपना निजी स्वार्थ सिद्ध कर रहें हैं। आज हमारे शिक्षण संस्थानों में कौन से विचारों पर चर्चा होनी चाहिए और किन पर नहीं, यह सवाल आज एक गंभीर मुद्दा बन चूका है। शिक्षण संस्थानों का राष्ट्र निर्माण में एक अमूल्य योगदान होता है। यहाँ देश के युवा अलग अलग राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर कई नजरियें से सोचना सीखते हैं। ऐसे में अगर हमारी राजनीतिक दलें इन संस्थानों में घुसपैठ कर अपनी रूढ़ीवादी और संकीर्ण विचारधारा को इन शिक्षकों, शिक्षार्थीओं व युवाओं पर थोप देगी तो इनका सही दिशा में विकास होना असंभव है। कुछ सिखने से पहले ही इनका राजनीतिकरण कर दिया जायेगा और आये दिन इनका इस्तेमाल राजनीतिक दल अपना स्वार्थ सिद्ध करने में करती रहेंगी। जब ईमानदारी तथा शिक्षा के स्तर अत्यधिक गिर जाते हैं तो उसका स्वरूप यह होता हैं कि उस देश या राज्य में खराब सरकार बन जाती है। और वह देश, राज्य या समाज अपने आवश्यक, बुनियादी व मूल मुद्दों से विचलित हो जाती हैं। यह सर्व विदित है कि प्रत्येक राज्य को न्याय, कानून की व्यवस्था, औधोगिक प्रगति, व्यवसायिक विकास, स्वास्थ्य तथा मनोरंजन आदि सभी क्षेत्रों में विभिन्न योग्यताओं के कर्मचारियों की आवश्यकता पड़ती है। इन विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने वाले योग्य कर्मचारियों का निर्माण केवल शिक्षा के द्वारा हो सकता है। वर्तमान युग में जो राज्य अपनी जनता को जितनी अधिक शैक्षिक सुविधायें दे रहा हैं, वह विभिन्न क्षेत्रों में उतना ही अधिक विकसित हो रहा है। प्रत्येक राज्य की अलग-अलग संस्कृति तथा सभ्यता होती है। इस संस्कृति एवं सभ्यता से राज्य की जनता को अगाध प्रेम होता है। इस प्रेम के वशीभूत होकर समस्त जनता एकता के सूत्र में बंधी रहती है। प्रत्येक राज्य इस एकता को बनाये रखने के लिए अपनी संस्कृति और सभ्यता की रक्षा करना चाहता है, जो केवल और केवल शिक्षा के ही द्वारा सम्भव है। शिक्षा के इस कड़ी को जोड़ने में पाठ्यपुस्तक बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं परन्तु पिछले कुछ वर्षों के दौरान पाठ्य पुस्तकों में किए गए बदलाव विवादास्पद मुद्दा बना रहा हैं। राजस्थान, गुजरात, हरियाणा और महाराष्ट्र ने जिस प्रकार पाठ्य पुस्तकों में संशोधन किए उन्हें देखते हुए सरकार पर शिक्षा के राजनीतिकरण के आरोप लगे। पाठ्य पुस्तकों की सामग्री को सहज, सुगम, प्रासंगिक, समयसंगत और आसान बनाना इसलिए आवश्यक है ताकि छात्र इसे आसानी से समझ सकें और उन विषयों को आत्मसात कर लें, जिनकी वे पढ़ाई कर रहे हैं। पुस्तकों को केवल राजनीतिक एजेडा सुधारने के लिए इस्तेमाल करने से तो पुन: सीमित किस्म का ज्ञान ही छात्रों को प्रदान किया जा सकेगा। पुस्तकों का संशोधन करना और उन्हें विश्व के मापदंडों के अनुसार अप-टू-डेट करना या यहां तक कि उन्हें देश भर में एक समान बनाना ज्यादा बेहतर और वांछित कदम होगा, परन्तु बिना सोचे विचारे राजनीतिक झुकाव के अधीन लिए गए निर्णय से यह प्रक्रिया अवरुद्ध ही होगी। प्रत्येक सरकार अपनी जनता से विभिन्न प्रकार कि कर वसूल इसलिए करती हैं ताकि इसको वह जनता के ही हित में खर्च कर सके, जनता के हित का तात्पर्य है जनता के रहन-सहन तथा संस्कृति एवं सभ्यता को ऊँचे स्तर तक उठाना और इस कार्य को केवल शिक्षा के द्वारा ही पूरा किया जा सकता है। इसलिए प्रत्येक राज्य सरकार का कर्तव्य और दायित्व होनी चाहिए कि वह अपनी जनता को अधिक से अधिक जागरूक करने के लिए प्राप्त किये हुए कर की निश्चित धनराशी को शिक्षा की दशा एवं दिशा सुधारने तथा शिक्षा के उचित व्यवस्था को करने में करें। परन्तु आज आलम यह हैं कि सरकारें अपनी स्वार्थपूर्ण राजनीति के चश्मे से देखकर यह तय कर रही हैं कि हमें कहां पे कितना खर्च करना हैं ? किसको कितना देना हैं ? आगे क्या करना हैं ? जिसके परिणामस्वरूप आज पुरा देश शिक्षा में एक सकारात्मकता और आधुनिकरण के लिए परिवर्तन की लड़ाई लड़ रहा है। परिवर्तन के इस लड़ाई में बुद्धिजीवी वर्ग को आगे बढ़कर आना होगा तभी हम एक स्वच्छ राष्ट्र का निर्माण कर पाएंगे। चाहें वह कोई भी शिक्षा-नीति क्यूँ न हो आने वाले समय मे यदि शिक्षा का यूँ ही राजनीतिकरण होता रहा यदि राजनीतिकरण का यह सिलसिला यूँ ही चलता रहा तो देश और समाज का अस्तित्व संकट मे पड़ जायेगा।
— डाॅ. पंकज भारती

डॉ. पंकज भारती

सचिव- बिहार माध्यमिक शिक्षक संघ इकाई- तरैया, सारण कार्यरत:- उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, इसुआपुर, जिला- सारण, बिहार। मास्टर ट्रेनर- SCERT Patna, Bihar निवास स्थान:- छपरा, सारण, बिहार संपर्क- (Mob/WhatsApp) 7549519596