लेखनी ठिठक गई (कविता)
हूँ कलम का सिपाही फिर क्यों
हाथ थरथड़ाने लगे हैं ?
कानों मे बेबस निर्भया की मौन सिसकी
आज भी गूंज रही है ।
पूछती है वह बारम्बार ।
लेखनी ठिठक गई ।
क्या मिलता है तुझे,मुझे हर बार उघाड़
ओ .. कलम के सिपाही मुझे नंगा करके
क्या मेरी आबरू अब लूटी नहीं जायेगी ?
भेड़ियों में संत बनने की होड़ लग जायेगी ?
फिर ठिठक गई लेखनी
अगला सवाल कामवालियों ने किया
मैं तो जूठन माँजती रही और
शायद आजीवन माँजती रहूंगी
मेरा नाम उछाल कर तुझे क्या मिला ?
इक टीस सी उठी ठिठक गई लेखनी
वन जीवों की भी करूण पूकार सुनाई देती अक्सर
क्या संरक्षण के लिये कोई ठोस कदम
उठाने की हिम्मत कभी करते हो ?
या यूं ही कलम घिसा करते हो ?
ऐसे शोर अक्सर बेचैन कर जाते हैं
फिर लेखनी ठिठक जाती है ।
सवालों के घेरे में वह उलझता ही जा रहा
बुजुर्गों के लिये बृद्धाश्रम क्या बंद हो रहा है
उसने अपने कानों पर हाथ रख कर क्षमा माँग ली
मानता हूँ मेरी लेखनी की गूँज मध्यम है
फिर भी लिखना नहीं छोड़ सकता हूँ
हिम्मत करके उसने कही मन की बात।
एक दिन ऐसा जरूर आयेगा
आप सबकी आवाज
बनकर बच्चा बच्चा आवाज उठायेगा ।
भाई मुझे आप सब माफ करो
मेरी भावनाओं के संग इंसाफ करो
कलम का सौदागर नहीं हूँ
बस जो महसूस करता हूँ वही लिखता हूँ।
जागृति और बदलाव स्वयं नहीं आते
कलम के सिपाही उसे लेकर आते हैं ।
मन की बात लेखनी में समा गई ।
ठिठक ठिठक कर चलती लेखनी भी
गीत गाते हुए नयी सुबह के स्वागत में चल पड़ी।
— आरती रॉय