कहानी

कहानी – विश्वासघाती

उनका पूरा कमरा ही शोक में डूबा हुआ था और विधायक जगतलाल जमीन पर पालथी मारे बैठे छाती पीट रहे थे- ”हाय! मेरा भाई! हत्यारों ने तुमको मुझसे छीन लिया! ओह भाई बाबू मेरे!“ और वह लगातार हिचक हिचककर रोये जा रहे थे। उनके आंसू थम नहीं रहे थे।
”विधायक जी धीरज रखिए!“ हिम्मत कर जिला एसपी सुरेश सिंह ढांढस बधाने आगे बढे थे- ”जिसने भी यह अपराध किये हैं कानून के हाथों वो बच नहीं सकते हैं आप हौसला रखिए।“
शवयात्रा की तैयारी शुरू हो चुकी थी। लोगों के दर्शन के लिए पार्टी कार्यालय के बाहर गणपत की लाश रख दी गयी थी। अंदर विधायक जगतलाल ज्वालामुखी बन बैठे हुए थे। उसके ठीक दूसरी तरफ एसपी सुरेश ंिसंह तनाव की चादर ओढ़े बैठा हुआ था।
क्षेत्र में तेजी से उभरते अपने युवा नेता की कथित हत्या से बाहर युवाओं में जबरदस्त आक्रोश था। इस हाई प्रोफाइल हत्या के विरोध में जगह-जगह आगजनी और तोडफोड शुरू हो चुकी थी। दो-दो थाने के पुलिस दल मिलकर भी भीड को नियंत्रित करने में खुद को बेबस और लाचार पा रहे थे। हाथ पैर काम नहीं कर रहे थे। शरीर ही नहीं लाठी बंदूक को भी जैसे लकवा मार गया था। भीड से भिडना या गोली फायरिंग करना सीधे-सीधे मौत से भिडना था। ऐसे वक्त किसी की आंखों में जवान बीबी का चेहरा, तो किन्ही की आंखों के सामने स्कूल कॉलेज जा रहे बेटे बेटियों का चेहरा घूमने लगा था। इसी चिंता में डूबे सुरेश सिंह लगभग फरियाद करते कह रहे थे- “विधायक जी, हमको चौबीस घंटे की मोहलत दीजिए, हत्यारा जो भी होगा आपके सामने होगा। बस तोड़-फोड़ और आगजनी की घटनाओं को रोकवा दीजिए, निर्दोष मारे जायेगें!“
जगतलाल ने बडी आहत नजरों से इस बार सुरेश सिंह की ओर देखा था। उनकी लाल-लाल आंखों का सामना सुरेश सिंह न कर सका, तो दरवाजे की ओर देखने लगा।
शोरगुल नारेबाजी से बाहर का माहौल और उग्र होता जा रहा था। जगतलाल कह रहा था- ”एसपी साहब, आपको मैने चौबीस क्या छतीस घंटे दिये, पर आपके पास सिर्फ ये छतीस घंटे का समय है, उसके बाद भूल जाऊंगा कि मै क्षेत्र का विधायक हूँ। लोग मुझे फिर वही पुराना जगता के रूप में पायेंगे। मसलमेन हूंँ, विरोधियों को मसलते हुए विधायक बना हूँ। जिसने मेरे भाई को मुझसे छीना है। उसे तो मरना होगा। मसल के रख देगेें। वो मेरा भाई था, जिगर का टुकडा था और मै उसका बदला लेकर रहूंगा।” कहने के साथ ही जगतलाल बाहर की ओर लपके थे, उनके पीछे पीछे सुरेश सिंह भी बाहर निकल आया था।
हठात मुझे गुजरे वो दिन याद आ गये। तब जगतलाल का उदय नहीं हुआ था, तब वह गांव का सिर्फ जगता हुआ करता था। तभी एक घटना गांव से सटे तारापुर कोलियरी घटी थी। एक गाड़ी में खलासी का काम करने वाले गांव के सीता राम को दूसरे मोटर मालिक के गुंडो ने चलान पास को लेकर बुरी तरह पीट दिया था। वह किसी तरह जान बचाकर भागा और गांव वालो। को अपनी पिटाई की कहानी बतायी। उस वक्त जगता घर के बाहर दो चार लडकों के बीच लटटू घुमा रहा था। उन दिनों जगता का यही काम था। मर मीटिंग के समय पार्टी का झण्डा ढोना और मौका मिले तो फुटबॉल और लटटू खेलना। सीताराम की पिटाई की कहानी सुन लोगों ने पहली बार जगता की आंखों में क्रोध की ज्वाला देखी थी और तब जगता ने लटटू को एक बच्चे के हाथ पकड़ाई और अपने साथियों को पुकारा! गांव वालों को ललकारा। अड़ोस पड़ोस के गांव में लोगों को दौड़ाया। और पहली बार दो घंटे में दो सौ ग्रामीणों युवाओं के साथ तीर धनुष, फरसा-टांगी और तलवार लिए जब तारापुर कोलियरी में अचानक जगता ने धावा बोल दिया तो वहां भगदड़ मच गयी!
”कौन लोग हैं… कौन लोग…” का शोर हर तरफ गूंज उठा था। उधर चेकपोस्ट के बाहर बैठे सीताराम को पीटनेवाले को जगता ने पटक-पटक के अधमरा कर दिया। कई बाहरी गाडियों में जबरदस्त तोडफोड की गई और उनमें एक मोटर को आग के हवाले कर दिया गया। तभी चन्द्रपुर थाने के पुलिस दलबल भीड़ के सामने आ गई। खूब देखा देखी हुई। जगता ने अपना कुर्ता फाड़ सीना तानते हुए थानेदार को ललकारा था- ”सीना हाजिर है! है हिम्मत तो गोली चलाओ। अपने ग्रामीण भाई के लिए जगता गोली खाने को तैयार है।” जगता यह समझ रहा था कि उसका पीछे हटने का मतलब ही आंदोलन की मौत और उसकी अगुआयी की भी मौत! वह अंत तक डटा रहा। पुलिस बल को ही पीछे हटना पडा था और जगता के दल ने उस दिन जैसे जगत जीत लिया। जगता आगे बढ़ा तो फिर बढ़ता ही चला गया। सप्ताह दिन तक तारापुर कोलियरी के काम काज में ताला लग गया। शुरू में प्रबंधन झुकने को तैयार नहीं और ”सेल रेल की कमाई में ग्रामीणों को हिस्सेदारी चाहिए तो चाहिए ही।” इससे कम जगता पीछे हटने को तैयार नहीं था। सभी जगह बाबू साहबों का कब्जा था। हटाने का अच्छा अवसर मिला था।
”कौन है जगता… यह जगता कौन है?” क्षेत्र के क्षितिज पर पहली बार लोगों के जुबान पर यह नाम चढा था। आखिर प्रबंधन को ही झुकना पडा। प्रशासन की मौजूदगी में वार्ता हुई। जगता जंग जीत बाहर आया तो साथियों ने उसे गोद में उठा लिया था- ”जगतलाल जिंदाबाद! इंक्लाब जिंदाबाद!” जगता के जीवन का यह एक टर्निंग पाइंट था और तारापुर कोलियरी की यही घटना जगता की जिंदगी का अहम मोड साबित हुआ। इस तरह कोलियरी की कोख से जगता का जगतलाल के रूप में उदय हुआ, तब से वह जनता की चहेता बन उनकी गोद में बैठा हुआ था।
बाहर का माहौल बेहद गरम था। विधायक को बाहर आते देख गगन फाडू नारे गूँजने लगे ..
“जब तक सूरज चांद रहेगा… गणपत बाबू तेरा नाम रहेगा!“
“गणपत बाबू के हत्यारे को फांसी दो फांसी दो…“
बाहर की भीड को सुरेश सिंह ने बड़ी कातर नजरों से देखा, जगतलाल से कुछ बातें कीं और फिर अपने दलबल के साथ निकल गया था। जगतलाल फोन पर किसी से बातें करने लगा।
झमाझम बारिस की बौछार के साथ दोपहर को उतेजित माहौल में गणपत की शवयात्रा निकली, आगे आगे जगतलाल, उनके पीछे शवयात्रा में शामिल हजारों की भीड! जगतलाल की आंखों से आंसू अब भी झरझर बह रहे थे या पानी की बूंदे थीं जिसे वह बार बार अपने गमछे से पोछ लेते थे- कहना मुश्किल था।
”जब तक सूरज चांद रहेगा …गणपत तेरा नाम रहेगा…“
”गणपत बाबू अमर रहें… अमर रहें… अमर रहें….“
“गणपत के हत्यारे को फांसी दो… फांसी दो… फांसी दो…“
”गणपत तेरा यह बलिदान… नहीं भूलेगें नहीं भूलेगें…“ धंाय! धांय! धांय! कई रिवाल्वरों का मुंह एक साथ खुल गया था, एक साथ गोलियों की आवाज और नारों से आसमान भी थर्रा उठा था। जैसे जैसे शवयात्रा आगे बढ रही थी। युवाओं में गुस्सा और आक्रोश बढता जा रहा था। सबसे ज्यादा उतेजित और गुस्से में गोबरधन दिख रहा था, उसका मुंह ही बंद नहीं हो रहा था। दांयी से शव को कंधा दिये वह आगे आगे चल रहा था। आसमान की बूंदों से कहीं अधिक उसकी आंखों से आंसू झरझर बह रहे थे और मुंह से गुस्सा फूट रहा था- ”गणपत बाबू अमर रहें.. .अमर रहें…“
गोबरधन का यह रूप बहुतों के लिए एकदम नया और आकस्मिक था। हंलाकि बहुतों को यह भी पता था कि गणपत ने ही गोबरधन को मल्बे के ढेर से एक दिन निकालकर जीवन की पटरी पर ला खडा किया था- गोबर गणेश गोबरधन को, तब गणपत के रूप में गोबरधन को जैसे भगवान शिव मिल गया था। दोस्ती ऐसी जमी कि किसन-सुदामा की दोस्ती याद दिला दे, और वही गोबरधन गणपत की बांह पकड़कर एक दिन विधायक प्रतिनिधि की कुर्सी तक पहुंच गया। आज उसी दोस्त की शव को कंधा दिये हुए वह जार जार रोये जा रहा था जैसे जवान बेटे की लाश कंधे पर ढोने वाला कोई बाप रोता हो।
दस साल पहले तक गोबरधन दस टके का आदमी नहीं था। ऐसा बहुतों का कहना था। बाप उसका एक प्राइवेट कंपनी में गेटमैन था और उसका बेटा गोबरधन पढा-लिखा होने के बावजूद दिन भर मारा मारा फिरता था। घर से बाहर और बाप से अलग उसकी अपनी कोई पहचान नहीं थी। एक दिन गोबरधन की मुलाकात सब्जी बाजार मंे विधायक जगतलाल के छोटे भाई गणपत से हो गयी। गोबरधन कद्दू बेच रहा था और गणपत कद्दू ले रहा था।
इस लेन देन के क्रम में ही उन दोनों में बातों का भी आदान-प्रदान हुआ। पढा-लिखा होकर भी यह कद्दू बेचने आया है, जानकर गणपत को बडा आष्चर्य हुआ। उसने गोबरधन से अपने घर आने को कहा।
चर्चित विधायक जगतलाल के घर के बाहर हर दिन सुबह का जनता दरबार लगता था।
उस दिन भी फरियादियों-मुनादियों और दरखास्तियों की खासी भीड थी। विधायक जी भी परेषान दिख रहे थे। उनका पी.ए. एतवारी अभी तक पहुंचा नहीं था। पता चला घर में उसका बच्चा बीमार था। तभी गणपत वहां आ पहुंचा, जगतलाल अपने छोटे भाई के प्रति अपार स्नेह रखता था। भाई को आया देख विधायक ने राहत की सांस ली, गणपत इसी तरह कभी-कभी दादा के कामों में आकर हाथ बटाया करता था। परन्तु आज गणपत ने दादा के किसी काम में हाथ नहीं बटाया, बल्कि अपने पीछे खडा गोबरधन को सामने कर दिया। बोला- ”दादा, यह मेरा दोस्त गोबरधन है- गोबरधन महतो, बी.ए. तक पढा है। बेरोजगार है। आप जो कहेगें, यह करेगा। साथ रख लीजिए।” इसके साथ ही उसने गोबरधन को सामने की एक कुर्सी पर बिठा दिया। गोबरधन किसी खंचिया में समाने जैसा कुर्सी में समा सा गया था। बाद में जगतलाल ने उससे कुछ बातें पूछीं और कुछ लिखने को भी दिया। गोबरधन ने उसे बडी सहजता से लिख दिखाया।
”हूं काम के लाइक है” विधायक जगतलाल ने कहा था। जो आदमी पिछले कई वर्षो से बेरोजगारी की हालत में ढपचता फिर रहा था, लोग जिनसे बातें करने से बचते और कतराते थे, उसी गोबरधन को जगतलाल ने अपना बेग ढोवा क्या बनाया, उसके जीवन का गियर ही बदल गया था।
विधायक के पास आने वाले सारे दरखास्त-फरखास्त अब वह पढ़ने लगा और दांव-पेंच भी बूझने लगा था। अब लोग भी उसे पूछने और प्रणामपाती भी करने लगे थे। एक बेरोजगार को रोजगार देने से मानगो गांव वालों ने भी विधायक के प्रति आभार प्रकट किये। गोबरधन जो गांव वालों की नजर में पहले नाकारा था, अब उन्हीं में गांव का हित नजर आने लगा था। समय के साथ लोगों के विचार बदलने लगे थे। गोबरधन अब गोबरधन नहीं रहा, पीए बन चुका था- विधायक का पीए! वही गोबरधन बाद में प्रतिनिधि बना तो दस साल तक विधायक का प्रतिनिधि बना रहा।
तभी लोगों के बीच एक खबर उडी थी कि गोबरधन विधायक जगतलाल से किसी बात पर फिर रूठ गया है। ऐसा एक बार पहले भी हो चुका था लेकिन तब जल्द मान भी गया था। अबकी सप्ताह दिन से अपने घर में बंद है, बुलाने पर भी वह नहीं जा रहा था, विधायक का फोन भी रिसीव नहीं करता। क्यों ऐसा कर रहा, था किसी को कुछ पता नहीं। गोबरधन की इस नाराजगी को लेकर क्षेत्र में गुपचुप-गपशप शुरू हो गयी थी। आखिर एक दिन अंदर की बात बाहर आई। गोबरधन को कोलियरी सेल में हिस्सेदारी चाहिए था। दोनों को मिलाने की कड़ी मैं ही बना, हमारे कोलियरी कैंटीन में, उस दिन मुर्गा भात बना। दूसरे दिन ही गोबरधन गाना गाते ”मेरे तो जगतलाल दूजा न कोई!” विधायक दरबार में, पहुंच गया। हर माह सेल से एक हजार मिलना तय हुआ था।
लोगों ने सुना तो खूब मजाक उडा- ”विधायक को अच्छा प्रतिनिधि मिला है, दुल्हा की तरह रूठता और मानता है।“
जगतलाल उन विधायकों में से एक थे। जो अपने क्षेत्र की जनता के कामो के प्रति दिन-रात मे कभी फर्क नहीं करते थे। जनता ने भी उन्हें अपने सर पे बैठा रखा था, मानो जगतलाल विधायक नहीं, बल्कि उनका भाग्य विधाता हो। भगवान से भी ज्यादा लोगों को अपने विधायक पर भरोसा था और विधायक को अपनी जनता पर। इसी विश्वास के चलते लोग दूर दूर से कागजों पर अपना दुखड़ा लेकर उनके पास पहुंचते थे। इनमे से किसी का कुंआ, किसी का इंदिरा आवास, तो किसी का वृृद्धा-पेंशन और राशन कार्ड के दरखास्त शामिल रहते थे।
कहते हैं ऊपर ऊपर ले उडते हैं जो लेने वाले हैं, कहते ऐसे ही जीते हैं जो जीने वाले हैं। यही फार्मूला गोबरधन ने अपनाया और विधायक के पास पहुंचने वाले आवेदनों के साथ तथाकथ्ति रूप से हेरा-फेरी कर अपने गोतिया-भाईयों में से किसी का वृृद्धा पेंशन किसी का राशन कार्ड किसी का इंदिरा आवास तो किसी के नाम कुंआ का अनुमोदन करवा लेता और विधायक को भनक तक नहीं लगती। सीधे सीधे वह भाई भतीजावाद करने लगा था। हल्ला तो तब होता जब योजना स्वीकृृति के लिए चली जाती और खामिया विधायक जी के पास पहुंचने लगतीं। शुरू में विधायक जी ने कुछ नहीं कहा। उसकी कारगुजारियों को नजरअंदाज करते रहे। इससे गोबरधन की लालच और बढती गयी। यहां तक कि गांव के सरकारी स्कूल में अपनी पत्नी, चचेरी भवासीन को पारा शिक्षक फिर अभियान विधायल में भी शिक्षिका के रूप में अपनी भवासीन को बहाल करवाने में वह सफल हो गया तो लोग जागे और हल्ला करने लगे। लेकिन अब होत क्या स्वार्थी ने जोत लिया जब सब खेत। मामला गरमाया जब कुछ माह बाद आंगनवाडी सेविका का बहाली की बात आयी। पर यहां भी गोबरधन ने अपने गोतिया भााईयों से हंगामा करवा कर सेविका पद भी गोतियारीन बहुरिया को दिलाने में वह सफल हो गया। कहा जा रहा था उपरोक्त बहुरिया के साथ उसका अंतरंग सबंध था। गोबरधन उसी का कर्ज चुकाने में लगा था। मतलब कि विधायक जी अपने क्षेत्र के विकाश मे। लगे हुए थे और उनका प्रतिनिधि अपने गोतिया-भाइयों के उधार करने में लगा हुआ था। मानगो गांव वालों की माने तो गोबरधन के नस नस मे।स्वार्थ का लहू दौडने लगा था। अपनो के सिवाय दूजा कोई उसे भाता नहीं। गांव में अब वह किसी को भी टके सा ”तुम खुद विधायक से बात कर लो ”जबाव दे देता था। फिर वो वक्त भी आया जब गांव वाले गोबरधन का विरोध करते करते विधायक का भी विरोध करने लगे। पहले पीए फिर विधायक प्रतिनिधि के रूप में गोबरधन ने लाखों कमाया। जीवन में कई परिवर्तन हुए, बदलाव आया। कच्चे मकान से पक्के मकान में आ गया, पहले पैदल चलता था अब बोलेरो में चलने लगा था। अब तो एक पेलोडर का मालिक भी बन गया था। और यह सब कुछ विधायक के रहमो करम से हुआ था।
अब वह सडक-पुल जैसे बडे कामों के ठेके पट्टे पर खुद को शामिल करने के लिए विधायक पर दबाव बढ़ाने लगा था। लेकिन ये सब काम विधायक अनुज गणपत देखता था। बडे-बडे ठेके पट्टों में कौन-कौन शामिल हो सकते हैं और कौन नहीं यह तय गणपत ही करता था। गोबरधन को गणपत पर भरोसा था। कद्दू बेचने वाले चंदू गोबरधन को आखिर गणपत ने ही तो शानदार मकान तक पहुंचने में मदद की थी।
एक रात गोबरधन पहुंचा था गणपत के पास। जिसके मन में था विश्वास! गणपत उसे नहीं करेगा निराश! समय ने दिया था पूरा साथ। गणपत था कमरे में अकेला। गोबरधन ने अपने आप को गंभीर बनाया फिर सीधे अपने मकसद में आ गया था- ”गणपत भाई, उस बडे पुल वाले काम में इस बार मुझे भी शामिल कर लो न, सडक वाले काम में भी शामिल होने नहीं दिया। जल मीनार वाले काम में भी दूर रखा। देखो इस बार निराश मत करना। बडी आशा लेकर आया हूं तुम्हारे पास।”
गणपत ने गोबरधन को बडी गहरी नजरों से देखा और उसके अंदर छिपे लालच को भी देखा फिर उसके मनोभाव को पढा। फिर देर तक सोचता रहा, गोबरधन की इस लालचीपन के बारे में। गोबरधन में एक लिजलिजा केंचुआ रेंगता नजर आया था उसे। और वह सोच नहीं पा रहा था कि जिस आदमी को उसने गोबर की ढेर से उठाकर एक कामयाब इंसान का रूप दिया। सुदामा जीवन से निकलकर यह लखपति बन गया। उसी आदमी ने उसके राम जैसे बडे भाई के प्रति कई बार अपषब्दों का प्रयोग किया। अपने सगे गोतिया भाईयों को मिलाकर पुतला दहन जैसा घिनौना काम करने की असफल कोशिश और मुर्दाबाद तक का नारा लगवाया, आज वही आदमी काम में भागीदारी मांगने चला आया। ऐसा स्वार्थी आदमी संसार में शायद ही कोई दूसरा हो। आज भी चर्चा होती है कि इसके भाई-भतीजावाद के कारण ही मानगो गांव के लोग दादा से नाखुश हो गये थे और हों भी क्यों न? विधायक प्रतिनिधि के रूप में इसने जो काम किया वैसा तो धंधा करने वाली कोई वेश्या भी नहीं करेंगीं।
गणपत की चुप्पी से गोबरधन को अकबकी होने लगी थी। अधीर आदमी जल्द ही अपना संतुलन खो लेता है। गोबरधन से चुप रहा नहीं गया। बोल उठा- ”चुप क्यों हो गया गणपत भाई? मुझे आपका सपोर्ट चाहिए और काम में भागीदारी भी। आपने मेरा बहुत साथ दिया। इस काम में साथ लगा लो।“
”गोबरधन दा, हम इस मामले में आपकी कोई मदद नहीं कर सकते है। आपको भी पता है। मैं हर बडे काम में एक टीम बनाता हूंूँ। उस टीम में वैसे युवाओं को शामिल करता हूँ, जो अभी तक बेरोजगार है और काम की तलाश में दादा के पास पहुंचते रहते हैं। अगर मैं अपनी टीम में आपको शामिल कर लिया तो बहुत गलत होगा और उन लडकों के साथ अन्याय भी जो काम की तलाष में भटकते फिरते हैं।” गणपत गंभीर बना रहा- ”फिर आप तो पहले वाले गोबरधन अब रहे नहीं, आज आपका स्टेटस काफी ऊपर उठ चुका है। अब दूसरों को भी ऊपर उठने का मौका दीजिए। याद है लोगों के कितने विरोध के बावजूद भी दादा ने आपको पुनः अपना प्रतिनिधि के रूप में रख लिया, यह क्या कम बडी बात है? सॉरी मैं आपको अपने साथ नहीं जोड सकता .हूँ।“
गोबरधन उदास मन घर लौट आया था। तब से वह ज्यादा गुमसुम ही रहता। कहीं उसका मन नहीं लगता विक्षिप्तों सी हालत हो गयी थी उसकी। खाना अरुचिकर लगता, सोते जागते उसकी आंखों के सामने गणपत का चेहरा घूमने लगता और उसकी कही बातें कानों में गूंजने लगती- ”गोबरधन दा, पहले आप क्या थे और आज क्या हैं। इस पर विचार कर लीजिए, फिर हमसे काम में हिस्सेदारी की बात कीजिए। सब जगह आप ही घूसते चलिएगा, तो बाकी कहां जायेंगे। दूसरों को भी ऊपर उठने का मौका दीजिए। सॉरी मै अपको अपनी टीम में शामिल नहीं कर सकता हूँ।“
विधायक के साथ क्षेत्र में घूमना उसने बंद कर दिया था, अब कम ही जाता। बीमारी का बहाना बना घर में पड़ा रहता था। बीच बीच में अपनी बुलेट मोटरसाईकिल से कहीं बाहर जाता भी तो घंटा-दो घंटा में वापस घर लौट आता। कहा जाता था कि ऊपरघाट वाली बहन बीमार थी उसे देखने जाता है। तभी एक दिन उसे मनसा तुरी से बातें करते देखा गया। मनसा कानून का फरार एक मुजरिम था और पुलिस को उसकी तलाश थी।
कभी सुना था गोबरधन की कई हसरतें थंीं। प्रतिनिधि के बाद क्षेत्र का विघायक बनना भी उसका एक बडा सपना था। पर लोग गणपत को क्षेत्र के भावी विघायक के रूप में देखने लगे थे। गणपत बेरोजगार युवाओं की पहली पसंद बनता जा रहा था। विधायक जगतलाल की लोकसभा चुनाव लडने की तैयारी चल रही थी और उनकी जीत भी पक्की मानी जा रही थी। सांसद बदलो के नारे अभी से ही क्षेत्र में उठने लगे थे। जिले में बदलाव की लहर थी।
कहते हैं राजनीति में दोस्त कम और दुश्मन ज्यादा होते हैं। जितने बडे नेता उतने उनके दुश्मन। लोमडी की तरह सब घात लगाये बैठे रहते हैं और मौका मिलते ही भेडियों की तरह उन पर टूट पडते हैे।
हमला यहां भी हुआ पर जगतलाल पर नहीं, उनके भाई गणपत पर! उस वक्त उसके सीने पर चार गोलियां उतार दी गयीं, जब वह अपने घर के बाहर अपनी भतीजी की शादी का निमंत्रण कार्ड देने पहुंचे अपने फुफेरे भाई गजाधर महतो से बातें कर रहा था। हमलावर की पहली गोली गजाधर महतो की बायें पैर पर लगी थी और वह वहीं गिर पडा था। इसके साथ ही गणपत गोलियों के निशाने पर आ गया था और वह वहीं ढेर हो गया था।
छतीस घंटे बीत गये और अड़तालीस घंटे भी बीत गये। अपराधी का पता नहीं चला या पुलिस ने राज नहीं खोला, कहना मुश्किल था। इसी बीच बनासो विधायक आरपी सिंह का बयान आया ”इस हत्याकाण्ड में उसके परिवार के किसी सदस्य का कोई लेना देना नहीं है। सीधे सीधे हमें बदनाम करने की यह किसी की एक बडी साजिश है।“
फिर भी विधायक पुत्र पर शक बना रहा। कारण था, सप्ताह दिन पहले गणपत और विधायक आरपी सिंह के पुत्र गूजर ंिसंह के बीच एक काम के टेण्डर को लेकर जोरदार हंगामा हुआ था। बात देखा-देखी तक पहुंच गयी थी। और सप्ताह दिन बाद गणपत की हत्या हो गयी, सो गुजर सिंह गणपत के साथियों के निशाने पर आ गया था। पुलिस प्रशासन के लिए यह बडा सिर दर्द था। इस कारण भी सुरेष सिंह अपना हाथ-पैर फूला महसूस कर रहा था।
अगले दिन वह जगतलाल से उनके घर में जा मिला और बोला- ”विधायक जी हमें कुछ समय और दें। मुजरिम आपके सामने खडा कर दूंगा। तब तक आप कोई कदम न उठाएं यह अनुरोध है मेरा आपसे।“
और जगतलाल ने एसपी सुरेष सिंह की बात मान भी ली! न जाने क्यों!
”ठीक है एस पी साहब, मेरे भाई के दस कर्म तक आपके पास समय है। उसके बाद मेरा समय शुरू होगा। तब तक हम कोई कदम नहीं उठायेगें। हत्यारा बचेगा नहीं, यही मिशन होगा हमारा।“
गणपत की हत्या हुए आज पूरे दस दिन हो गए। पर पुलिस हत्यारे को ढूंढने में दस कदम भी आगे नहीं बढ पाई थी। ऐसा कहा जा रहा था। इसको लेकर क्षेत्र में कई तरह की चर्चाएं गरम थीं। परन्तु किसी भी बात का सिंघ पूंछ नहीं था। बे सिर पैर की चर्चाएं थी। शक की सूई दो लोगों के इर्द गिर्द घूमने लगी थी। प्रतिनिधि गोबरधन और बनासो विधायक पुत्र गुजर सिंह पर। लेकिन कोई खुलकर बोलने की स्थिति में नहीं था। पिछले दिनों घटित घटनाओं को आधार बनाकर लोगों ने अपने अपने ढंग से कयास लगाने शुरू कर दिये थे। गोबरधन गणपत को अपने महात्वाकांक्षी सपनों का सबसे बडा रोड़ा समझने लगा था, तो वहीं गुजर सिंह गणपत को अपना प्रबल प्रतिद्वन्दी मानकर चल रहा था, ऐसा लोगों का मत था।
घर में दसकर्म की तैयारी चल रही थी। पूरा घर गम में डूबा हुआ था और गम की अतल गहराईयों में डूबे हुए थे विधायक जगतलाल! तडके सुबह उठ जाने वाले जगतलाल देर रात तक जगे रहने के कारण अभी तक सोये हुए थे। लेटे लेटे करवटें बदल रहे थे। उनकी मानस पटल पर एक के बाद एक तस्वीरें उभर रही थीं, कभी नन्हा गणपत का चेहरा आंखों के सामने दौडने लगता, तो कभी युवा गणपत!। दामोदर किनारे जलती भाई की लाश के शोले अब वह अपने सीने में महसूस करने लगा था। तभी कमरे में एक आवाज सुनाई दी ”दादा! आप सोये है, मेरा हत्यारा आप ही के बीच रह रहा है।“
जगतलाल हडबड़ाकर उठ बैठा था। कमरे का पंखा अपनी स्पीड पर घूम रहा था फिर भी उनका पूरा शरीर पसीना पसीना हो गया था जैसे सुबह सुबह दौड़ लगाने पर हो जाता था। अगले ही पल मोबाइल उनके हाथ में था और चेहरा सख्त होता चला गया।
बाहर निकले तो चप्पे चप्पे पुलिस जवान को खडे पाये। दोनो थाना प्रभारी और एसपी सुरेश सिंह, तीनों विजय की मुद्रा में जगतलाल की ओर आगे बढे थे। उनकी चाल में कामयाबी की सूचक थी!
”विधायक जी सर्च ऑपरेशन सफल रहा! हत्यारे दबोच लिये गये हैं।“
”कौन है कहां है उस हरामी के पिल्ले कमीने को मै जिंदा गाड दूंगा।“ जगतलाल आपे से बाहर हो उठे थे। गुस्से से उनका पूरा शरीर कांपने लगा और क्रोध्र से आंखें लाल हो गई थी।
“शांत-शांत विधायक जी, वह अब हमारी हिरासत में है और कानून का कडा उसके हाथों में डाल दिया गया है। भडास निकालने का पूरा मौका देगें हम आपको, मिलना चाहेगे अभी?
”नहीं, अभी नहीं, .प्रभु!“ उन्होंने अपने अंगरक्षक को आवाज दी “गोबरधन कहां है?“
”सर, वह सुबह सोकर उठा, लेटरिन गया तब से नहीं दिखा।“ ’अंगरक्षक ने बताया।
”अजीब आदमी है, जब कातिल पकड़ा नहीं गया था, तब रात दिन बदला लेने की बात करता था। अब जब कातिल पकडा गया, तो जाने खुद कहां गायब हो गया है। कल ही की बात है ऑफिस में आया, और मेरे पैर के सामने बैठकर कहने लगा- ”दादा, माना कि हम गणपत की जगह नहीं ले सकते है, लेकिन हॅंू तो आपके गणपत जैसा ही, आपको कभी गणपत की कमी महसूस होने नहीं देंगे हम।“
”विधायक जी अभी क्या करना है।“
”शाम को मीडिया के सामने हाजिर कीजिए।“
”जैसा आप कहें।“
”आपको और आपकी पूरी टीम को आभार!” लगा जगतलाल फफककर रो पडेंगें, उनका गला भर आया था।
”विधायक जी आपने कानून अपने हाथ मे न लेकर प्रशासन की जो मदद की उसके लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद!” सुरेष सिंह ने विधायक जगतलाल से हाथ मिलाते हुए कहा ”ठीक है हाजिर करते है चार बजे मीडिया के सामने।“
इधर दश कर्म घाट निकलने के पहले गणपत के हत्यारे की गिरफ्तारी की खबर समूचे क्षेत्र में ढोल की तरह पिट गयी।
गणपत का हत्यारा पकडा गया! गणपत का हत्यारा पकडा गया। यह एक ऐसी खबर थी जिसे सुनने के लिए लोग बेकरार-बेताब थे, प्रशंसक भी और विरोधी भी!
शाम चार बजे चन्द्रपुर थाना परिसर में पैर रखने के लिए जगह न बची थी। गणपत के हत्यारे को एक झलक देखने के लिए भीड उमड पडी थी।
जब दोनों हत्यारे को एक साथ मीडिया के सामने लाया गया तब दोनों के चेहरे पर काला कपडा डाला हुआ था, जैसे उन दोनों का जीवन भी काल कोठरी का हिस्सा बनने जा रहा हो और दोनो के हाथ पीछे रस्सी से बंधा हुए थे। दोनों बडी मुश्किल से खडे हो पा रहे थे। बीच बीच में लडखडा उठते थे इस कारण दो सिपाही दोनों को पकडे हुए थे।
इसके पूर्व विधायक जगतलाल ढाई-तीन बजे चन्द्रपुर थाना पहुंचे। एसपी सुरेश सिंह साहब ने उनका स्वागत किया और सीधे हाजत में ले गये जहां अंधरे बंद कमरे में दोनों हत्यारों को रखा गया था और फिर जैसे ही बंद कमरा खोला गया, बत्ती जली, चीखते हुए जगतलाल पीछे हटे- ”यह कैसा मजाक है सिंह साहब, हत्यारे की जगह मेरे प्रतिनिधि को ही पकड लाकर बंद कर दिया है।“
”यही सच है विधायक जी!“ सामने होते हुए सुरेश सिंह ने कहा- ”यही दोनों आपके भाई के हत्यारे हैं और यह जो दूसरा मनसा तूरी है जिसने हत्या करने में गोबरधन का साथ दिया।” सुरेश सिंह ने मनसा का लंबी बाल खींन्चते हुए कहा- ”हत्या, अपराध और बलात्कार के जुर्म में पुलिस को बहुत दिनों से इसकी तलाश थी।“
”तुम, आस्तीन के सांप! क्षेत्र के लोगों के विरोध के बावजूद मैने तुमको दुबारा अपना प्रतिनिधि बनाया, इज्जत दी और तुमने मुझे जिंदगी भर का दर्द दिया कमीने, गद्दार, नमक हराम थूह है तेरी इस जिंदगी पर! सिंह साहब, इस विश्वाासघाती को दूर हटाइये मेरी नजरों के सामने से! ” कहते कहते विधायक जगतलाल का सर चकरा उठा। इससे पहले कि चक्कर खाकर वे धडाम से जमीन पर गिरते-एस पी सुरेश सिंह ने उन्हे मजबूती से संभाल लिया।

— श्यामल बिहारी महतो

*श्यामल बिहारी महतो

जन्म: पन्द्रह फरवरी उन्नीस सौ उन्हतर मुंगो ग्राम में बोकारो जिला झारखंड में शिक्षा:स्नातक प्रकाशन: बहेलियों के बीच कहानी संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित तथा अन्य दो कहानी संग्रह बिजनेस और लतखोर प्रकाशित और कोयला का फूल उपन्यास प्रकाशित पांचवीं प्रेस में संप्रति: तारमी कोलियरी सीसीएल में कार्मिक विभाग में वरीय लिपिक स्पेशल ग्रेड पद पर कार्यरत और मजदूर यूनियन में सक्रिय