प्रबोध -मंजरी
-1-
न देश का विचार है,विचार जाति-पाँति का।
गुबार ही गुबार है,नहीं सुनीति – रीति का।।
विनाश काल सामने,न देखता सु – नैन से।
नशा नसा रहा तुझे,रहा न मूढ़ चैन से।।
-2;
मरा न कौन काल से,न तू सदा – सदा रहे।
सदा सु-काज ही जिया, सु-देहआग में दहे।
न राह रोक और की, न आह ले कभी यहाँ।
सु-पंथ पे सदा चले,सु -योनि मानुसी कहाँ??
-3-
न गैर नारि कामना,सुधार मीत भावना।
हिरण्य सेंध-साधना, समाज-नीति लाँघना।।
अनीति है जघन्यता,कुकर्म साज साजता।
सु-धी मलीन पात्र को,सुसंग से न माँजता??
-4-
ध्वजा तिरंग सोहती,विमोहती स्वदेश को।
हमें गुरूर है बड़ा, सु-वन्दगी महेश को।।
अराति बाट जोहता, असावधान हों नहीं।
सुमेरु- से गिरें वहाँ,अमीत हों जहाँ कहीं।।
-5-
चले सुपंथ में सदा, कुपंथ की न राह ले।
मिली सुबुद्धि भी तुझे,न जी अमीत चाह ले।
भरें न पेट ढोर भी, सुतथ्य तू न जानता?
उगा न भानु रात में,सु – सत्य यों न मानता।।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’