गाँवों में अब गाँव नहीं है।
अरसे भर के बाद गया था,
जन्म लिया जिस गाँव
गाँवों में अब गाँव नहीं है।
धुआँ उगलती हुई चिमनियाँ
लुटे – पिटे – से खेत,
ऊबड़ – खाबड़ दगरे सारे
नहीं राह में रेत,
आँगन लिपे नहीं गोबर से,
चर्चे नहीं कहीं सोवर के,
नर नंगे पाँव नहीं है।
दूध भैंस से गया दोहनी
टंकी में ही जाए,
लौनी छाछ न बालक जानें
चाय ,चाय हाँ चाए!
भैंस नहीं लोरें पोखर में,
चरी नहीं सूखे चोकर में,
कागा की काँव नहीं है।
चौपालें चुपचाप मौन हैं
पूछ रही हैं आप कौन हैं!
गिल्ली डंडा कहीं नहीं अब
गलियों में फिर रहे डॉन हैं,
गुच्ची पाड़ा आँख मिचौनी
नहीं गाँव की जाने छौनी,
अमराई की छाँव नहीं है।
विदा हुआ गँवई भोलापन
चालू शातिर लोग – लुगाई,
अपनी-अपनी कारों से अब
बिटिया की कर रहे विदाई,
स्वार्थ भरा नस – नस में,
खाते जन झूठी कसमें,
पर -उपकारी ठाँव नहीं है।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’