किनारा!
पॉर्क की बैंच पर बैठी निकिता के आंसू रुक नहीं पा रहे थे. आसुओं के इन्हीं झरनों में भी उसके अतीत की यादें धुंधली नहीं पड़ी थीं.
अत्यंत शांत स्वभाव वाले पति का स्वभाव इधर तनिक बदल-सा गया था. बात-बात पर उसे गुस्सा आने लगा था.
“मेरा नया बॉस कुछ खड़ूस टाइप का है. बात-बात पर फाइलें फेंक देता है.” नीलेश ने उसे बताया भी था.
वह भी उसकी परेशानी समझती थी और “सब कुछ ठीक हो जाएगा” कहकर धीरज भी बंधाती थी. लेकिन कब तक?
इसी बीच विवेक से उसकी मुलाकात क्या हुई, वह सब कुछ भुला बैठी! नीलेश के आने से पहले वह रोज पॉर्क में विवेक से मिलने जाती रही थी.
सब कुछ छोड़कर आज वह विवेक के साथ किसी दूसरी दुनिया में जाने के लिए आ गई थी. रोज की निश्चित जगह पर वह मिला भी था. “जब तुम पति की ही न हो सकीं तो, मेरी कब तक रहोगी?” कहकर विवेक चल दिया था. उसे जाते हुए देखकर वह ठगी-सी खड़ी रह गई थी, फिर बैंच पर बैठ गई थी.
“अच्छी-खासी जिंदगी चल रही थी, लेकिन विवेक से मिलने के बाद न जाने क्यों मुझे पति नीलेश के व्यवहार से चिढ़ांध-सी हो गई थी.” उसके विचारों की उड़ान चरम पर थी.
“मेरे लिए नीलेश ने क्या-क्या नहीं किया? नृत्य में मेरी रुचि देखकर उसने नृत्य-स्कूल में मेरा दाखिला करवा दिया था.” वह खुद को ही उलाहना दे रही थी.
“मैं स्कूल में अध्यापिका बनना चाहती थी, उसने मुझे बी.एड. भी करवा दिया, ताकि ससम्मान नौकरी कर सकूं.”
“मुझे श्री मद्भगवद्गीता का मराठी में अनुवाद करना था, इसलिए जब तक मैं लिखती रही, वह खुद से ही तीन-चार महीने ब्रहमचर्य व्रत पर रहा.” उसको खुद पर ही गुस्सा आ रहा था.
“दो-दो नावों पर सवार होने की अपनी मूर्खता के कारण मैं न घर की रही, न घाट की! न इधर जा सकती हूं, न उधर!” उसकी हिचकियां-सी बंध गईं.
“उठो, घर चलो निक्की! तुम्हारा घर तुम्हारा इंतजार कर रहा है.” उसे पीठ पर किसी की प्यार भरी छुअन महसूस हुई. देखा तो नीलेश था! “घर चलो, विवेक ने मुझे सब कुछ बता दिया है!”
किनारा खुद चलकर उसके पास आ गया था!
कहानी अच्छी लगी। धन्यवाद जी। सादर नमस्ते जी।
अवसाद के कुछ कमजोर पलों में कभी-कभी इंसान ऐसा अवांछित निर्णय ले लेता है, जिस पर बाद में उसे स्वयं पर पश्चाताप होता है. तब तक प्रायः किनारा सदैव के लिए छूट चुका होता है, पर कभी-कभी खुशकिस्मती से किनारा खुद ही पास आ जाता है.