श्रीकृष्ण और जैन धर्म
श्रीकृष्ण और जैनों के 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ चचेरे भाई थे। श्री कृष्ण के पिता वासुदेव और नेमिनाथ के पिता समुद्र विजय भाई थे।
जैन शास्त्रों में श्री कृष्ण को अतिविशिष्ट पुरुष के रूप में चित्रित किया गया है। जैन आगमों में 63 श्लाका पुरुष माने गए हैं जिनमें 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 वासुदेव तथा 9 प्रति वासुदेव हैं। नेमिनाथ (अरिष्ट नेमि) 22वें तीर्थंकर तथा श्री कृष्ण नौवें अंतिम वासुदेव हैं। शलाका पुरुष अत्यंत तेजस्वी, वर्चस्वी, कांतिमय, अल्पभाषी, प्रियभाषी, सत्यभाषी, सर्वांग सुंदर, ओजस्वी, प्रियदर्शी, गंभीर, अपराजेय आदि गुणों से संपन्न होते हैं। जैन पुराणों के अनुसार श्री कृष्ण भावी तीर्थंकर हैं।
नेमिनाथ वैराग्य प्रकृति के थे। श्री कृष्ण के प्रयास से ही नेमिनाथ का विवाह जूनागढ़ के राजा उग्रसेन की पुत्री राजमती(राजुल) से तय हुआ था, किन्तु जब बारात नगर सीमा पर पहुँची तो बाड़े में बंद पशुओं की चीत्कार से नेमिनाथ सिहर उठे। यह देख नेमिनाथ को वैराग्य हो गया। उन्होंने अपने आभूषण उतार कर सारथी को दे दिए और कैवल्य पथ पर चल दिए। श्रीकृष्ण भी उन्हें समझाने में सफल नहीं हो सके।
नेमिनाथ ने जिस स्थान पर दीक्षा ग्रहण की थी, उसी स्थान पर उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। श्रीकृष्ण ने जब यह समाचार सुना, तो वे अपने परिजनों एवं सहस्त्रों राजाओं के साथ हाथी पर बैठ कर नेमिनाथ के दर्शन करने गए।
नेमिनाथ ने श्री कृष्ण को निवृत्ति मार्ग पर चलने का उपदेश दिया। नेमिनाथ के पास मयूर पिच्छी थी, जो अहिंसा के लिए जैन मुनि का अनिवार्य साधन होती है। उस पिच्छी से नेमिनाथ ने श्री कृष्ण को जो आशीर्वाद दिया, वह श्री कृष्ण को इतना प्रिय लगा कि उन्होंने मुकुट में मोर पंख धारण करना शुरू कर दिया।
श्री कृष्ण नेमिनाथ को आराध्य के रूप में स्वीकारते हैं। गीता में हिंसात्मक यज्ञ आदि का निषेध है तथा समन्वय की प्रधानता है। इधर, अहिंसा जैन धर्म का सबसे बड़ा सिद्धांत है। नेमिनाथ और श्रीकृष्ण के विचार बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं। यह दोनों महापुरुषों के घनिष्ठ संबंध का प्रबल प्रमाण है।
श्री जिनसेनाचार्य विरचित श्री हरिवंशपुराण जी में आपकी पावन चरित्र का विस्तृत वर्णन है।आपका पुण्य इतना तेज था कि देवों के द्वारा द्वारका नगरी समुद्र के ऊपर बसाकर दी गई थी। महापुरुष किसी संप्रदाय विशेष की धरोहर नहीं होते। उनका व्यक्तित्व तो सूर्य – चंद्रमा की भांति सार्वभौमिक होता है। उन्हें किसी परिधि में सीमित करना उचित नहीं है।
— मीना जैन दुष्यंत