कविता

मैं खुश हूँ

 

चलिए! मानता हूँ

मैं बड़ा बेवकूफ हूँ,

आपकी खुशी में ही मैं भी खुश हूँ।

पर जरा सोचिये

जो आरोप आप मुझ पर लगा रहे हैं

उन आरोपों के असली हकदार तो आप खुद ही हैं।

माना कि हमनें गल्तियां की हैं

या भूल हमसे हुई बहुत है,

तो इसमें नया और विचित्र क्या है?

ये सब तो सामान्य सी बात है

क्योंकि इंसान तो गल्तियों का पुतला है,

हम भी तो आखिर इंसान हैं,

कोई भगवान तो नहीं,

गल्तियां तो हमसे होती ही रहेंगी

पर आप हमें लांछित कर

कौन सा तीर मार रहे हैं?

इंसान होकर इंसानियत का

कौन सा फर्ज निभा रहे हैं?

आप मेरी भूल, गल्तियों को

देखकर अनदेखा नहीं कर रहे हैं,

बस मौका तलाश रहे हैं

मुझे जलील करने की पृष्ठभूमि के

मजबूत होने का इंतजार करते रहे हैं

और आज आपको मौका मिल गया

तो बस! मुझ पर हमले किए जा रहे हैं,

कुटिल मुस्कान बिखेर रहे हैं,

अपने आपको बड़ा बुद्धिमान बन रहे हैं।

आपकी बुद्धिमत्ता आपको मुबारक हो

मैं मूढ़, अधम, अज्ञानी का तमगा

चिपकाए हुए भी बहुत बहुत बहुत खुश हूँ।

क्योंकि मैं किसी को अपमानित

उपेक्षित तो नहीं कर रहा हूँ,

खुश इसलिए भी हूँ

कि किसी का दिल नहीं दुखा रहा हूँ

किसी की आह तो नहीं ले रहा हूँ

जैसा भी हूँ, वैसा ही दिख रहा हूँ

भेड़िया हूँ तो शेर नहीं बन रहा हूँ

झूठ पर सच का आवरण भी न मैं डाल रहा हूँ,

इसीलिए खुश हूँ और मस्ती में जी रहा हूँ।

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921