कविता

कुछ तो सच है

 

एक प्रश्न आज तक अनुत्तरित है

जिसका उत्तर ही तो नहीं मिलता,

वो अप्रत्याशित मुलाकात

मुझे आज भी बेचैन करता

झकझोरता, रुलाता है,

मगर समझ में नहीं आता है।

सरल सहज माहौल में

चल रहा सामान्य बातचीत का दौर

अचानक गंभीर हो जाता है,

माहौल थोड़ा गमगीन हो जाता है।

उसके शब्द खामोशी से बोल रहे थे

आँखों में लरजते आँसू

उसके अंतर्मन के दर्द उड़ेल रहे थे।

हम तो खुद से विवश थे

क्योंकि हम उसे रो लेने देना चाहते थे

चाहकर भी उसके आँसू पोंछने में भी

तनिक हिचकिचा भी रहे थे।

क्योंकि सहानुभूति दिखाकर

उसे कमजोर नहीं करना चाहते थे,

बस उसे खुद से हिम्मत कर

उठते देखना चाहते थे,

इसीलिये हम अपने आँसुओं पर

सख्ती से लगाम लगाये हुए थे।

यह अलग बात है कि

वो मुझे संवेदनहीन न समझ बैठे

यह सोच कर हम घबराए भी नहीं थे,

पर सच यह भी है कि

अंतर्मन से हम टूटकर बिखर रहे थे

बड़ी मुश्किल से खुद पर काबू किए थे।

मेरी कल्पना, दृढ़ता ने वो कर दिखाया

सच कहूँ तो मुझे विश्वास नहीं आया।

उसने अपने आंसू पोंछे

फीकी मुस्कान से ही सही तनिक मुस्कराई,

उठकर मेरे पास आई

मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए बड़े प्यार से बोली

क्या सोचने लगे भाई?

मैं कुछ बोल न सका, बस उसे देखता रहा।

मेरी आँखों से आँसू जैसे आजाद हो गये

अविरल प्रवाह बन बहने लगे

गालों से बहते हुए मेरी शर्ट भिगोने लगे।

वो तनिक घबड़ाई, अच्छे से डांट पिलाई

अपनी बाँहों में समेट दुलराई

अपने आँचल से मेरे आँसू पोंछे

मेरी पीठ थपथपाई, ढांढस बधाई,

उसकी आँखें फिर भर आईं।

उस अनुभव को व्यक्त करना कठिन है

पर उस विलक्षण पल तो मुझे ऐसा लगा

जैसे स्वर्ग से मेरी माँ फिर से

धरती पर उसके रुप में ही उतर आई है।

यह महज कल्पना तो है मगर

जिसे मैं रोज रोज महसूस करता हूँ

इस कल्पना में जैसे कुछ तो सच है

यही सोचकर बेचैन होता, रोता और जीता हूँ।

साथ ही माँ सदृश्य अहसास कराने वाली

उस कल्पना वाली मातृशक्ति को

बारंबार प्रणाम करता हूँ,

उसके ममत्व को नमन वंदन करता हूँ,

कुछ तो सच है, यही मानकर

खुद को हौसला देता और जीता हूँ।

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921