धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

क्षमा वीरस्य भूषणं

आदरणीय

सादर नमस्कार I

जैनधर्म की परम्परानुसार वर्ष में एक बार संवत्सरी पर्व पर वार्षिक प्रतिक्रमण का सुअवसर हर आयु के जिन अनुयायी को सौभाग्यवश मिलता है I प्रतिक्रमण का अर्थ है, पीछे लौटना, यानी अपने मूल स्वभाव या स्वरूप में लौट जाना, चूंकि आत्मा को शुद्ध, पवित्र तथा कमल के पुष्प की तरह निर्लिप्त माना गया है I इसलिए गलतियां, अपराध, दुर्व्यवहार, अभिमान, दम्भ, लालच, अहंकार, क्रोध, मद, मोह, शत्रुभाव, ईर्ष्या, जलन, प्रतिद्वन्दिता का भाव आदि प्रवृत्तियां मन आदि को कलुषित करने में समर्थ होती हैं तथा अपने सम्पर्क में आने वाले व्यक्ति / व्यक्तियों के हृदय को, मनसा, वाचा और कर्मणा अर्थात् मन के द्वारा, अप्रिय अथवा ह्रदय को आहत करने वाली वाणी के कारण और अनपेक्षित या दुःख पहुंचाने वाले कर्म के द्वारा अत्यधिक दुःख पहुंच सकता है I

प्रतिक्रमण की उसी दिव्य परम्परा का लाभ उठाते हुए उपरोक्त में से किसी भी प्रकार का अपराध आपके प्रति मुझसे हुआ ही होगा, अतएव आपसे हाथ जोड़कर क्षमा याचना करता हूं I कृपया ह्रदय से क्षमा करें I भगवान महावीर ने आचारांग सूत्र में कहा है – खामेमि सव्वे जीवा I सव्वे जीवा खमन्तु मे, मीत्ती मे सव्व भूएसु  वेरम् मज्झम् न केणइ II अर्थात् मैं समस्त जीवों को क्षमा करता हूं, और सब जीव मुझे भी क्षमादान करें I सब जीवों के साथ मेरी मित्रता है, किसी के साथ मेरा बैर नहीं है I

इसी भावना के साथ आपसे क्षमायाचना करता हूं I स्नेह और संवाद बनाए रखने का कष्ट करें I

आपका ही

— मनोहर भण्डारी