गीतिका/ग़ज़ल

गज़ल़

इतना ही चाहता हूँ मैं हर बार देखना,
मन में खुशी दिल में सभी त्योहार देखना।

पतझड़ भी होगे़ राह में तेरी हरेक बार,
मुमकिन नहीं है बारहा बहार देखना।

फुर्सत नहीं है मरने की भी जिनको आजकल,
लोगों ने छोड रक्खा है इतवार देखना।

धनवान को ही देखते हैं लोग क्यूँ सभी,
मज़लूम की तरफ़ कभी सरकार देखना।

खाके नमक बशर जो दग़ा देश से करे,
बचने न पाए एक भी गद्दार देखना।

उंगली पकड़ के आपकी जिसने बड़ा किया,
बिसरे कभी न बाप का उपकार देखना।

जो बाग लगा गीत, ग़ज़ल का है ‘जय’ उसे,
लबरेज खुश्बूओं से हो गुलज़ार देखना।

— जयकृष्ण चांडक ‘जय’

*जयकृष्ण चाँडक 'जय'

हरदा म. प्र. से