गीत/नवगीत

शीश झुकाते

जल पीकर जो  हल के  लिए जल  जाते,
सह जाता सबकुछ तब  शिक्षक कहलाते।
अज्ञानता अंधकार कुरुप रूप   धर  आये,
ज्ञान के प्रकाश पुंज को गुरु तब   फैलाते।
फैलाते रौशनी जब अपने देह को  जलाते,
उन गुरुओं के सामने अपना शीश झुकाते।
बंजर सी धरती पर ज्ञान  हरियाली  उगाते,
सूखे सारंगो पर पकड़ सौरभ वो भर जाते।
दीपक बाती घृत तेल खुद बनकर वह  तो,
प्रकाश फैला अपने नीचे  अंधियारी  लाते।
जो संस्कारों की मीठी टोकरी हमें दे  जाते,
उन गुरुओं के सामने अपना शीश  झुकाते।
पग पग पथ जब कठिन  कठिनाइ है आते,
आस लगा अपने गुरुओं के पास  है  जाते।
वो कांटों पर बिछा  देते  अपनी  हथेलियां,
काट के कठिन वो  सरल  रास्तें  है  बनाते।
खुद की खूबियां छोड़कर हम पे जा लुटाते,
उन गुरुओं के सामने अपना शीश  झुकाते।
— सोमेश देवांगन

सोमेश देवांगन

गोपीबन्द पारा पंडरिया जिला-कबीरधाम (छ.ग.) मो.न.-8962593570