ग़ज़ल
रौशनी की कमी थी कमी रह गयी।
एक शम्मा जली की जली रह गयी।
था हसीनों का जमघट वहाँ इक बड़ा,
इक हसीं पर नज़र पर टिकी रह गयी।
छोड़कर जा चुके कब के हम दर्द सब,
साथ मेरे फ़क़त इक सखी रह गयी।
कितने अरमान मुझको रुला कर गये,
एक हसरत दबी की दबी रह गयी।
बुझ गया जबसे उम्मीद का इकदिया,
तीरगी ही फ़क़त तीरगी रह गयी।
— हमीद कानपुरी