गीत कैसे मैं सुनाऊँ
वेदना जब उर में हो, पिडित नारी और नर हो,
कट रहे हों वृक्ष जग में, औ’ धरा भी जल रही हो,
चीखती हों बेटियाँ, और मानवता भी मर रही हो,
मन को शीतल कर सके जो, गीत कैसे मै सुनाऊँ?
आरक्षण की बेडियों से, प्रतिभायें दम तोडती हो,
जाति धर्म की दीवारों पर, अलगाववाद को रोपती हो,
आतंक और भ्रष्टाचार को, जब सियासत पोषती हो,
हो राष्ट्र का सम्मान प्रथम, गीत किसको मैं सुनाऊँ?
मर रहे सैनिक सरहद पर, घर में छिपे गद्दार हों,
हिफाजत में अपनों की कुछ, भीड में मक्कार हों,
धन की रखवाली में बैठे, कुछ चोरों के सरदार हों,
जो ज्ञान दे, अभिमान दे, गीत कैसे मैं सुनाऊँ?
कल की चिन्ता से विमुख, पर्यावरण को रौंदता हो,
गंगा के जल में भी मानव, स्वार्थवश मल घोलता हो,
रिश्तों की कितनी अहमीयत, अर्थ से उसे तौलता हो,
मानवता उर में जगा दे, गीत किसको मैं सुनाऊँ?
हिन्द की राष्ट्र भाषा, हिन्दी की जब बात हो,
अंग्रेज़ी को आधार बना, हिन्दी पर ही घात हो।
अपनी ही संतानों द्वारा, जब खुद पर प्रतिघात हो,
हिन्दी को सम्मान दे जो, गीत किसको मैं सुनाऊँ?
— अ कीर्तिवर्धन