ग़ज़ल
जितना बढ़ते गए गगन की ओर
उतना उन्मुख हुए पतन की ओर
साज-श्रृंगार व्यर्थ है तेरा
दृष्टि मेरी है तेरे मन की ओर
फल परिश्रम का तब मधुर होगा
देखना छोड़िए थकन की ओर
मन को वैराग्य चाहिए, लेकिन
तन खिंचा जाता है भुवन की ओर
“जय” भी एकांतवास-प्रेमी है
इसलिए आ गया सुख़न की ओर