क्षणिका

घेरा

घेरा तो आखिर घेरा है,
हसरत का या बेरुखी का,
वफा का या बेखुदी का,
प्यार का या तिरस्कार का,
तकरार का या इंकार का,
काम का या व्यापार का,
आहट के इंतजार का,
पुष्पों का या कंटकों का,
खुशियों का या गमों का,
कोशिश का या नाकामयाबी के रंज का,
हार-जीत तो होनी ही है
चाहे खेल कबड्डी का हो या शतरंज का,
आशा का या निराशा का,
या कि गरीबी-अमीरी की परिभाषा का.
घेरा तो घेरा होता है,
किस्मत का फेरा होता है,
न तेरा होता है, न मेरा होता है,
घेरा तो आखिर घेरा ही होता है.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244